Monday 6 March 2017

एकांत प्रतीक्षा

एकांत सदैव स्नेह भरा मेरा ये प्रतीक्षित मन,
ज्युँ एकांत सा है ये सागर,
किसी विवश प्रेमी की भाँति युगों से प्रतीक्षारत.....
प्रतीक्षा के मेरे ये युग तुम ले लो!
चैनो-सुकून के मेरे पल मुझको वापस दे दो!

एकांत मेरे स्वर में है क्रंदन सा स्नेह गायन,
ज्युँ दहाड़ता है ये सागर,
बार बार इन गीतों को जग कर गाता है ये मन.....
प्रतीक्षा के मेरे ये गीत तुम ले लो!
उनींदी नींदों के मेरे पल मुझको वापस दे दो!

एकांत साँसो में अवरोधित हैं प्राणों के घन,
ज्युँ शांत हुआ है ये सागर,
निष्प्राण हुई हैं साँसे, विरान बाहों का आलिंगन.....
प्रतीक्षित ये आलिंगन तुम मेरा ले लो!
अवरुद्ध सांसो के मेरे घन मुझको वापस दे दो!

प्रतीक्षा के इन एकांत पलों में तुम साथ मेरा दे दो.....

Sunday 5 March 2017

मैं सौदागर

मैं खुशियों का व्योपारी, कहते मुझको सौदागर।

बेचता हूँ खुशियों की लड़ियाँ,
चँद पिघलते आँसुओं के बदले में,
बेचता हूँ सुख के अनगिनत पल,
दु:ख के चंद घड़ियों के बदले में।

सौदा खुशियों की करने आया मैं सौदागर।

सौदा मेरा है बस सीधा सरल सा,
सुख के बदले अपने दुख मुझको दे दो,
मोल जोल की भारी गुंजाईश इसमें,
जितना चाहो उतनी खुशियाँ मुझसे लो।

सौगात खुशियों की लेकर आया मैं सौदागर।

खुलती दुकान मेरी चौबीसो घंटे,
सौदा सुख का तुम चाहे जब कर लो,
स्वच्छंद मुस्कान होगी कीमत मेरी,
बदले में मुस्कानों की तुम झोली ले लो।

मैं खुशियों का व्योपारी कहते हैं मुझको सौदागर।

सुख दुख तो इक दूजे के संगी,
लेकिन संग कहाँ कहीं पर ये दिखते हैं,
इक जाता है तो इक आता है,
साथ साथ दोनो इस मन में ही बसते हैं।

सौगात जीवन की लेकर आया हूँ मैं सौदागर।

मन की दीवारों को टटोलकर देखो
सुख के गुलदस्ते अभी तक वहीं टंके हैं,
हृदय के अंदर तुम झाँककर देखो,
सुख का सौदागर तो रमता तेरे ही हृदय है।

ढ़ूंढ़ों तुम अपने हृदय में वही बड़ा है सौदागर।

उत्कंठा और एकाकीपन

दिशाहीन सी बेतरतीब जीवन की आपाधापी में,
तड़प उठता मन की उत्कंठा का ये पंछी,
कल्पना के पंख पसारे कभी सोचता छू लूँ ये आकाश,
विवश हो उठती मन की खोई सी रचनात्मकता,
दिशाहीन गतिशीलताओं से विलग ढूंढता तब ये मन,
चंद पलों की नीरवता और पर्वत सा एकाकीपन...

जीवन खोई सी आपधापी के अंतहीन पलों में,
क्षण नीरव के तलाशता उत्कंठा का ये पंछी,
घुँट-घुँट जीता, पल-पल ढूंढता अपना खोया आकाश,
मन की कँवल पर भ्रमर सी डोलती सृजनशीलता,
तब अपूर्ण रचना का अधूरा ऋँगार लिए ढूंढता ये मन,
थोड़ी सी भावुकता और गहरा सा एकाकीपन.....

रचनाएँ करती ऋँगार एकाकीपन के उन पलों में,
पंख भावना के ले उड़ता उत्कंठा का ये पंछी,
कोमल संवेदनाओं को मिलता अपना खोया आकाश,
नीरव सा वो पल देती उत्कंठाओं को शीतलता,
विविध रचनाओं का पूर्ण संसार बन उठता ये मन,
सार्थक करते जीवन, ये पर्वत से एकाकीपन....

Monday 27 February 2017

फासलों मॆं माधूर्य

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग....

बोझिल सा होता है जब ये मन,
थककर जब चूर हो जाता है ये बदन,
बहती हुई रक्त शिराओं में,
छोड़ जाती है कितने ही अवसाद के कण,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मन को देती हैं माधूर्य के कितने ही एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

अनियंत्रित जब होती है ये धड़कन,
उलझती जाती है जब हृदय की कम्पन,
बेवश करती है कितनी ही बातें,
राहों में हर तरफ बिखरे से दिखते है काँटे,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मखमली वो छुअन देती है माधूर्य के एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

लघु-क्षण

हो सके तो! लौटा देना तुम मुझको मेरा वो लघु-क्षण....

क्षण, जिसमें था सतत् प्रणय का कंपन,
निरन्तर मृदु भावों संग मन का अवलम्बन,
अनवरत साँसों संग छूटते साँसों का बंधन,
नैनों के अविरल अश्रृधार का आलिंगन,
हो सके तो! लौटा देना तुम मुझको मेरा वो लघु-क्षण....

क्षण, जिसमें हूक सी उठी थी मृत प्राणों में,
पाया था इक नया जनम, दो रुके से साँसों नें,
फूटे थे किरण आशा के डूबे से इन नैनों में,
शुष्क हृदय प्रांगण में बज उठे थे राग मल्हार,
हो सके तो! लौटा देना तुम मुझको मेरा वो लघु-क्षण....

क्षण, जिसमें हों जीवन की आशा के कण,
जर्जर मन वीणा के तार जहाँ करते हों सुर कंपन,
मृत-प्राण भी पाते हों, नवजीवन का आलिंगन,
कूकते हों कोयल के गीत हृदय के मनप्रांगण,
हो सके तो! लौटा देना तुम मुझको मेरा वो लघु-क्षण....

Friday 24 February 2017

मैं शिव हूँ

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

विभत्स हूँ... विभोर हूँ...
मैं समाधी में ही चूर हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

घनघोर अँधेरा ओढ़ के...
मैं जन जीवन से दूर हूँ...
श्मशान में हूँ नाचता...
मैं मृत्यु का ग़ुरूर हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

साम – दाम तुम्हीं रखो...
मैं दंड में सम्पूर्ण हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

चीर आया चरम में...
मार आया “मैं” को मैं...
“मैं”, “मैं” नहीं..."मैं” भय नहीं...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

जो सिर्फ तू है सोचता...
केवल वो मैं नहीं...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

मैं काल का कपाल हूँ...
मैं मूल की चिंघाड़ हूँ...
मैं मग्न...मैं चिर मग्न हूँ...
मैं एकांत में उजाड़ हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

मैं आग हूँ...मैं राख हूँ...
मैं पवित्र राष हूँ...
मैं पंख हूँ...मैं श्वाश हूँ...
मैं ही हाड़ माँस हूँ...
मैं ही आदि अनन्त हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

मुझमें कोई छल नहीं...
तेरा कोई कल नहीं...
मौत के ही गर्भ में...
ज़िंदगी के पास हूँ...                      
अंधकार का आकार हूँ...
प्रकाश का मैं प्रकार हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

मैं कल नहीं मैं काल हूँ...
वैकुण्ठ या पाताल नहीं...
मैं मोक्ष का भी सार हूँ...    
मैं पवित्र रोष हूँ... मैं ही तो अघोर हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

(संग्रहित,  रचनाकार-अज्ञात)

Monday 20 February 2017

सँवरती रहो

ऐ मेरी संगिनी, देखूँ जब जब भी मैं तुमको......

सजी-सँवरी सी दिखना, दिखना जब भी तुम मुझको,
हो माथे पे बिंदिया, हाथों में क॔गन, मांग सिंदूरी तेरी हो,
चुनरी हो सर पे, इन होठों पे बस इक हँसी सजी हो,
आँखों की भंगिमाएँ सम्मोहक हों, श्रृंगार नई हों।।

ऐ मेरी संगिनी, देखूँ जब जब भी मैं तुमको....

तुम झूमकर बलखाती, अंकपाश में भर लेती मुझको,
आँखों में चमक,बातों में खनक,पंछी सी यूँ चहकती हो,
सुरीली सी स्वर हो, राग पिरोती मिश्री सी तेरी बातें हो,
आशाओं के सावन हों, बस आकर्षण के पल हों।।

ऐ मेरी संगिनी, देखूँ जब जब भी मैं तुमको....

बगिया सा तेरा आँचल, मुस्कुरा कर पुकारती मुझको
खनकते कंगन,छनकते पायल, कुछ कह जाती मुझको,
घटाओं से तेरे गेशू, मन की आकाश पर लहराते हों,
सजते हों रंग होली के, मौसम त्योहारों के जैसे हों।

ऐ मेरी संगिनी, देखूँ जब जब भी मैं तुमको....
यूँ ही खिलती सँवरती रहो तुम, देखूँ जब भी मैं तुमको..