Sunday 9 July 2017

हरी चूड़ियाँ

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

हरी सी वो चूड़ियाँ, गाते हैं गीत सावन के,
छन-छन करती वो चूड़ियाँ, कहते हैं कुछ हँस-हँस के,
नादानी है ये उनकी या है वो गीत शरारत के?

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

छनकती है चूड़ियाँ, कलाई में उस गोरी के,
हँसती हैं कितनी चूड़ियाँ, साजन के मन बस-बस के,
चितवन चंचल है कितनी हरी सी उस चूड़ी के!

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

भीग चुकी हैं ये चूड़ियाँ, बदली में सावन के,
मदहोश हुई ये चूड़ियाँ, प्रेम मद सावन संग पी-पी के,
अब गीतों में आई रवानी, हरी सी उस चूड़ी के!

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

Friday 7 July 2017

छलकते बूँद

छलकी हैं बूँदें, छलकी सावन की ठंढी सी हवाएँ....

ऋतु सावन की लेकर आई ये घटाएँ,
बारिश की छलकी सी बूँदों से मन भरमाए,
मंद-मंद चंचल सा वो बदरा मुस्काए!

तन बूंदो से सराबोर, मन हो रहा विभोर,
छलके है मद बादल से, मन जाए किस ओर,
छुन-छुन छंदों संग, हिय ले रहा हिलोर!

थिरक रहे ठहरे से पग, नाच उठा है मोर,
झूम उठी है मतवाली, झूम रहा वो चितचोर,
जित देखूँ तित, बूँदे हँसती है हर ओर!

कल-कल करती बह चली सब धाराएँ,
छंद-छंद गीतों से गुंजित हो चली सब दिशाएँ,
पुकारती है ये वसुन्धरा बाहें सब फैलाए!

ऋतु ये आशा की, फिर आए न आए!
उम्मीदों के बादल, नभ पर फिर छाए न छाए!
चलो क्युँ ना इन बूँदों में हम भीग जाएँ!

छलकी हैं बूँदें, छलकी सावन की ठंढी सी हवाएँ....

Tuesday 4 July 2017

रिमझिम सावन

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

बूदों की इन बौछारों में, मेरे सपने है भीगे से,
भीगा ये मन का आँगन, हृदय के पथ हैं कुछ गीले से,
कोई भीग रहा है मुझ बिन, कहीं पे हौले-हौले से....

भीगी सी ये हरीतिमा, टपके  हैं  बूदें पत्तों से,
घुला सा ये कजरे का रंग, धुले हैं काजल कुछ नैनों से,
बेरंग सी ये कलाई, मुझ बिन रंगे ना कोई मेहदी से....

भीगे से हैं ये ख्वाब, या बहते हैं सपने नैनों से,
हैं ख्वाब कई रंगों के, छलक रहे रिमझिम बादल से,
वो है जरा बेचैन, ना देखे मुझ बिन ख्वाब नैनों से....

भीगी सी है ये रुत, लिपटा है ये आँचल तन से,
कैसी है ये पुरवाई, डरता है मन भीगे से इस घन से,
चुप सा भीग रहा वो, मुझ बिन ना खेले सावन से......

बूँद-बूँद बिखरा ये सावन, कहता है कुछ मुझसे,
सपने जो सारे सूखे से है, भीगो ले तू इनको बूँदो से,
सावन के भीगे से किस्से, जा तू कह दे सजनी से....

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

Saturday 1 July 2017

विरह के पल

सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं.....

आया था जीवन में वो जुगनू सी मुस्कान लिए,
निहारती थी मैं उनको, नैनों में श्रृंगार लिए, 
खोई हैं पलको से नींदें, अब असह्य सा इन्तजार लिए,
कलाई की चूरी भी मेरी, अब करती शोर नहीं,
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

इक खेवनहार वही, मेरी इस टूटी सी नैया का,
तारणहार वही मेरी छोटी सी नैय्या का,
मझधार फसी अब नैय्या, धक-धक से धड़के है जिए,
खेवैय्या अब कोई मेरा नदी के उस ओर नही,
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

अधूरे सपनों संग मेरी, बंधी है जीवन की डोर,
अधूरे रंगों से है रंगी, मेरी आँचल की कोर,
कहानी ये अधुरी सी, क्युँ पूरा न कर पाया मेरा प्रिय,
बिखरे से मेरे जीवन का अब कोई ठौर नहीं!
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

सच जानकर भी, ये मन क्युँ जाता है उस ओर?
भरम के धागों से क्युँ बुनता मन की डोर?
पतंगा जल-जलकर क्युँ देता है अपनी प्राण प्रिय?
और कोई सुर मन को क्युँ करता विभोर नहीं?
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

खेवैय्या कोई अपना सा, अब नदी के उस ओर नही!

Thursday 29 June 2017

उजड़ा हुआ पुल

यूँ तो बिसार ही चुके हो अब तुम मुझे!
देख आया हूँ मैं भी वादों के वो उजरे से पुल,
जर्जर सी हो चुकी इरादों के तिनके,
टूट सी चुकी वो झूलती टहनियों सी शाखें,
यूँ ही भूल जाना चाहता है अब मेरा ये मन भी तुझे!

पर इक धुन! जो बस सुनाई देती है मुझे!
खीचती है बार बार उजरे से उस पुल की तरफ,
टूटे से तिनकों से ये जोड़ती है आशियाँ,
रोकती है ये राहें, इस मन की गिरह टटोलकर ,
बांधकर यादों की गिरह से, खींचती है तेरी तरफ मुझे!

कौंधती हैं बिजलियाँ कभी मन में मेरे!
बरस पड़ते हैं आँसू, आँखों से यूँ ही गम में तेरे,
नम हुई जाती है सूखी सी वो टहनियाँ,
यादो के वो घन है अब मेरे मन के आंगन,
कोशिशें हजार यूँ ही नाकाम हुई है भूलाने की तुझे!

इस जनम यूँ तड़पाया है तेरे गम ने मुझे!
बार-बार, हर-बार तेरी यादों ने रुलाया है मुझे,
खोल कर बाहें हजार मैने किया इन्तजार,
पर झूठे वादों ने तेरे इस कदर सताया है मुझे,
अब न मिलना चाहुँगा, कोई जनम मैं राहों में तुझे !

Tuesday 27 June 2017

जीवन यज्ञ

इक अनवरत अनुष्ठान सा,
है यह जीवन का यज्ञ,
पर, विधि विधान के फेरों में, 
है उलझी यह जीवन यज्ञ।

कठिन तपस्या......!
संपूर्णता की चाह में कठिन तपस्या कर ली मानव ने,
पर, मनोयोग पाने से पहले.....
पग-पग बाधाएँ कितनी ही आई तपयोग की राह में।

समुन्द्र मंथन......!
अमरत्व की चाह में समुन्द्र मंथन कर ली मानव ने ,
पर, अमृत पाने से पहले ...
कितने ही गागर गरल के आए अमरत्व की राह में।

पूर्णता की राहों में 
हैं पग-पग रोड़े यहों,
विघ्न रुपी विधान जड़ित रोड़ों से लड़ जाने को,
दो घूँट सुधा के फिर पाने को,
अमृत कलश इन होठों तक लाने को
ऐ मानव! समुद्र मंथन तुम्हे फिर से दोहराना होगा!

विधि विधान जड़ित बाधाओं से लड़,
सुधा-निहित गरल,
जो मानव हँसकर पी जाएगा,
सम्पूर्ण वही जीवन यज्ञ कर पाएगा।

Friday 23 June 2017

विखंडित मन

विखंडित ऐ मेरे मन! मैं तुझको कैसे समझाऊँ?

हैं अपने ही, वो जिनसे रूठा है तू,
हुआ क्या जो, खंड-खंड बिखरा या टूटा है तू,
है उनकी ये नादानी, जिनके हाथों टूटा है तू,
माना कि टूटी है, वीणा तेरे अन्तर की,
अब मान भी जा, गीत वही फिर से दोहरा दे तू।

विखंडित ऐ मेरे मन! मैं मन ही मन कैसे मुस्काऊँ?

संताप लिए, अन्दर क्यूं बिखरा है तू,
विषाद लिए, अपने ही मन में क्यूं ठहरा है तू,
उसने खोया है जिसको, वो ही हीरा है तू,
क्यूं फीकी है, मुस्कान तेरे अन्तर की?
अब मान भी जा, फिर से खुलकर मुस्का दे तू।

विखंडित ऐ मेरे मन! चल गीत कोई गा मेरे संग तू!