Tuesday 3 November 2020

निर्मम, जाने न मर्म!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

ढ़ँक लूँ, भला कैसे ये घायल सा तन!
ओढूं भला कैसे, कोई आवरण!
दिए बिन, निराकरण!
टटोले बिना, टूटा सा अंतः करण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

हो चले थे सर्द, पहले ही एहसास सारे!
चुभोती न थी, काँटों सी चुभन!
दुश्वार कितने, हैं क्षण!
जाने बिना, पल के सारे विकर्षण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

गर, सुन लेते मन की, तो आते न तुम!
दर्द में सिहरन, यूँ बढ़ाते न तुम!
दे गई पीड़, तेरी छुअन!
सर्द आहों में भर के, सारे ही गम,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 29 October 2020

कदम

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

चल पड़े जो, अज्ञात सी इक दिशा की ओर,
ले चले, न जाने किधर, किस ओर!
अनिश्चित से भविष्य के, विस्तार की ओर!
साथ चलता, इक सशंकित वर्तमान,
कंपित क्षण, अनिर्णीत, गतिमान!
इक स्वप्न, धूमिल, विद्यमान!

डगमग सी आशा, कभी गहराई सी निराशा,
लहरों सी उफनाती, कोई प्रत्याशा,
पग-पग, हिचकोले खाती, डोलती साहिल,
तलाशती, सुदूर कहीं अपनी मंजिल,
निस्तेज क्षितिज, लगती धूमिल!
लक्ष्य कहीं, लगती स्वप्निल!

जागृत, इक विश्वास, कि उठ खड़े होंगे हम, 
चुन लेंगे, निर्णायक दिशा ये कदम,
गढ़ लेंगे, स्वप्निल सा इक धूमिल आकाश,
अनन्त भविष्य, पा ही जाएगा अंत,
ज्यूँ, पतझड़, ले आता है बसन्त!
चिंगारी, हो उठती है ज्वलंत!

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 25 October 2020

चुभन

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

हो गए हो, गुम कहीं आज कल तुम!
हाँ संक्रमण है, कम ही मिलने का चलन है!
वेदना है, अजब सी इक चुभन है!
तो, काँटे विरह के, क्यूँ बो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

चल कर ना मिलो, मिल के तो चलो!
हाँ, पर यहाँ, मिल के बिसरने का चलन है!
सर्द रिश्तों में, कंटक सी चुभन है!
तो, रिश्ते भूल के, क्यूँ सो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते पलों को तुम!

पल कर, शूल पर, महकना फूल सा,
हाँ, खिलते फूलों के, बिखरने का चलन है!
पर, बंद कलियों में इक चुभन है!
तो, यूँ सिमट के, क्यूँ घुट रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

एकाकी, हो चले हो, आज कल तुम,
हाँ, संक्रमण है, एकांत रहने का चलन है!
पर, स्पंदनों में, शूल सी चुभन है!
तो, यूँ एकांत में, क्यूँ खो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 24 October 2020

एक टुकड़ा मन

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

घर से, निकला ही क्यूँ, बेवजह मैं?
न था आसान, इतना, कि आँखें मूंद लेता,
मन के, टुकड़ों को, कैसे रोक लेता!
समझा न पाया, मैं उनको,
आसान न था, समेट लेना, मन के टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

मशगूल था, खुद में ही, था भला मैं!
यूँ, किसी की, हूक सुनकर, चल पड़ा था,
विह्वल सा हुआ था, एक टुकड़ा मन,
पिरोकर हूक, में खुद को,
मुश्किल था बड़ा, समेट लेना, शेष टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

बस, होश है बाकी, शेष हूँ कहाँ मैं!
बेदखल, पराए गमों से, रह सका कहाँ मैं, 
भिगोते ही रहे सदा, आँसूओं के घन,
बहला न पाया, मैं मन को,
बिखर कर, टूटना ही था, मन के टुकड़ों को!

शायद, छोड़ आया हूँ, वहीं मैं!
एक टुकड़ा मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 14 October 2020

गर हो तो रुको


गर हो तो, रुको....

कुछ देर, जगो तुम साथ मेरे,
देखो ना, कितने नीरस हैं, रातों के ये क्षण!
अंधियारों ने, फैलाए हैं पैने से फन,
बेसुध सी, सोई है, ये दुनियाँ!
सुधि, ले अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

नीरवता के, ये कैसे हैं पहरे!
चंचल पग सारे, उत्श्रृंखता के क्यूँ हैं ठहरे!
लुक-छुप, निशाचरों ने डाले हैं डेरे!
नीरसता हैं, क्यूँ इन गीतों में!
बहलाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

देखो, एकाकी सा वो तारा,
तन्हा सा वो बंजारा, फिरता है मारा-मारा!
मन ही मन, हँसता है,वो भी बेचारा!
तन्हा मानव, क्यूँ रातों से हारा!
समझाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)