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Wednesday 15 June 2022

बिसारिए ना


बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
इधर जाइए!

यूं नाजुक, बड़े ही, ये डोर हैं,
निर्मूल आशंकाओं के, कहां कब ठौर हैं,
ढ़ल न जाए, सांझ ये,
दिये, उम्मीदों के,
इक जलाइए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

धुंधली, हो रही तस्वीर इक,
खिच रही हर घड़ी, उस पर लकीर इक,
सन्निकट, इक अन्त वो,
जश्न, ये बसन्त के,
संग मनाईए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

बिसार देगी, कल ये दुनियां,
एक अंधर, बहा ले जाएगी नामोनिशां,
सिलसिला, थमता कहां,
वक्त ये, मुकम्मल,
कर जाईए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 29 October 2020

कदम

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

चल पड़े जो, अज्ञात सी इक दिशा की ओर,
ले चले, न जाने किधर, किस ओर!
अनिश्चित से भविष्य के, विस्तार की ओर!
साथ चलता, इक सशंकित वर्तमान,
कंपित क्षण, अनिर्णीत, गतिमान!
इक स्वप्न, धूमिल, विद्यमान!

डगमग सी आशा, कभी गहराई सी निराशा,
लहरों सी उफनाती, कोई प्रत्याशा,
पग-पग, हिचकोले खाती, डोलती साहिल,
तलाशती, सुदूर कहीं अपनी मंजिल,
निस्तेज क्षितिज, लगती धूमिल!
लक्ष्य कहीं, लगती स्वप्निल!

जागृत, इक विश्वास, कि उठ खड़े होंगे हम, 
चुन लेंगे, निर्णायक दिशा ये कदम,
गढ़ लेंगे, स्वप्निल सा इक धूमिल आकाश,
अनन्त भविष्य, पा ही जाएगा अंत,
ज्यूँ, पतझड़, ले आता है बसन्त!
चिंगारी, हो उठती है ज्वलंत!

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 20 May 2020

COVID 19: इक तलाश

COVID 19: अविस्मरणीय संक्रमण के इस दौर में, कोरोना से खौफजदा जिन्दगियों की चलती फिरती लाशों के मध्य, जिन्दगी एक वीभत्स रूप ले चुकी है। हताशा में यहाँ-वहाँ भटकते लोग, अपनी कांधों पे अपनी ही जिन्दगी लिए, चेतनाशून्य हो चले हैं । मर्मान्तक है यह दौर। न आदि है, ना ही अंत है! हर घड़ी, शेष है बस, इक तलाश ....

सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!

हर तरफ, खौफ के मध्य!
ढूंढती है, जिन्दगी को ही जिन्दगी!
शायद, बोझ सी हो चली, है ये जिन्दगी,
ढ़ो रहे, वो खुद, अपनी ही लाश,
जैसे, रह गई हो शेष,
इक तलाश!

सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!

अजीब सा, इक मौन है!
जिन्दगी से, जिन्दगी ही, गौण है!
चल रहे वे अनवरत, लिए एक मौनव्रत,
पर, गूंजती है, उनकी सिसकियाँ!
उस आस में, है दबी,
इक तलाश!

सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!

न आदि है, ना ही अंत है!
उन चेतनाओं में, सुसुप्त प्राण है,
उनकी कल्पनाओं में, इक अनुध्यान है,
उन वेदनाओं में, इक अजान है,
बची है, श्याम-श्वेत सी,
इक तलाश!

सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 16 December 2019

बिखरो न यूँ

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
सँवार लो, अपनी ही रंगों में,
ढ़ाल लो, हकीकत में, इन्हें तुम!

सपने ही हैं, गर टूट भी जाएँ तो क्या,
नए, सपने गुनो तुम!
उतर कर, निशा की छाँव में,
तम की गाँव के, तारे चुनो तुम!

बसे हैं इर्द-गिर्द, तुम्हारे सपनों के घर,
घर, कोई चुनो तुम!
बसा लो, इन्हें अपने नैन में,
बिखरे पलों को, समेट लो तुम!

या हों बिखरे, या चाहों मे रहे पिरोए,
उन्हीं की, सुनो तुम!
बिखर कर, स्वाति बूँदों में,
गगन से आ, सीप में गिरो तुम!

वस्तुतः, है अन्त ही, इक नया आरंभ,
पथ, अनन्त चुनो तुम!
राहें, बदल जाते हैं, मोड़ में,
हर छोड़ में, खुद से मिलो तुम!

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
निराशा के, डूबे से क्षणों में,
नींव, आशा की, नई रखो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 15 June 2019

एकांत पल

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

यूँ लगा था, पहले पहल,
बड़े नीरव से हैं, वो एकांत पल,
दीर्घ श्वांस भरते होंगे, वो एकांत पल,
एकाकी रहती होंगी, वो हरपल,
सिमटे से, होंगे वो पल!
छाई होगी नीरवता, अनमना सा होगा हर पल!

यही सोच, सदियों तक,
पहुँचा था मैं, एकांत पलों तक,
ले अंकपाश, बेतहासा चूमती भाल,
कंठ लिए रव, चहक उठे पल,
जागृत थे, वो हर पल!
थी उनमें स्थिरता, धैर्य भरा था उनमें हर पल!

कलरव हैं, उनके अन्तः,
गुंजित हो उठते हैं, पल स्वतः,
मृदुल से वो पल, मुखर हैं अन्ततः,
रव उनमें, आदि से अन्त तक,
शान्त से, एकांत पल!
रव की मधुरता, आकंठ लिए थे एकांत पल!

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा