Saturday 21 October 2023

छूटते लम्हे

प्यार यूं तो, बहुत है इस ज़िन्दगी से,
पर ये लम्हे, हैं कम कितने!

लरी खुशियों की, यूं ही, हम बुनते,
कली ये सारे, यूं ही हम चुनते,
क्या करें!
यूं तो, गम भी हैं कितने!

प्यार यूं तो.....

जल उठे, यूं दिये बंद एहसासों के,
धुवें कितने, यूं गर्म सांसों के,
क्या करें!
नमीं आंखों में, हैं कितने!

प्यार यूं तो.....

यूं कहें किससे, ये किस्से अनकहे,
यूं जलजले से उठते ही रहे,
क्या करें!
गुम से साहिल हैं कितने!

प्यार यूं तो, बहुत है इस ज़िन्दगी से,
पर ये लम्हे, हैं कम कितने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 4 October 2023

मद्धिम रात

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

स्वप्न सरीखी, अनुभूतियां,
कंपित होते, कितने ही पल,
उलझे हैं, इन आंखों पर,
ज्यूं, जागी है रात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

सुलझे कब, ऐसे उलझन,
विस्मित, दो तीर, खड़ा मन,
अपना लूं, सुबह के पल,
या, मद्धिम सी रात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

भ्रमित करे, ये मृगतृष्णा,
खींचे स्वप्न भरे कंपित पल,
सहलाए, भूले मन को,
हौले-हौले, ये रात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

सुबह के, ये भीगे पात,
अलसाई, उंघती हर छटा,
वो नन्हीं सी, इक घटा,
कहती अधूरी बात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 29 August 2023

फरमाईश

दरिया, इक ठहरा सा मैं,
चंचल हो, 
उतने ही तुम!

है इक, चुप सा पसरा,
झंकृत हो उठता, वो सारा पल गुजरा,
सन्नाटों से, अब कैसी फरमाईश,
शेष कहां, कोई गुंजाइश!

समय, कोई गुजरा सा मैं,
विह्वल हो,
उतने ही तुम!

उठती, अन्तर्नाद कभी,
मुखरित हो उठते, गूंगे फरियाद सभी,
कर उठते, वे भी इक फरमाईश,
क्षण से, रण की गुंजाइश!

बादल, इक गुजरा सा मैं,
अरमां कई,
भीगे-भीगे तुम!

गुजरुंगा, इक चुप सा,
हठात्, उभरता, ज्युं अंधेरा घुप सा,
रहने दो, अधूरी इक फरमाईश,
उभरने दो, इक गुंजाइश!

इक अंत हूं, गुजरा सा मैं,
पंथ प्रखर,
उतने ही तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 24 June 2023

जीत

मन में लिए, कई उलझन,
पहली बार, विदा हो आई जब मेरे आंगन,
शंकाओं भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

पर, कहीं, थी इक लगन,
मध्य उलझनों के, विहँसता रहा तेरा मन,
उम्मीदों भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

झौंक जाते, तप्त पवन,
चौंक जाते हर आहटों पर, तेरे हृदयांगन,
ममत्व भरा, 
था बड़ा ही, वो तेरा मन!

बिता चुके, इक जीवन,
हर वक्त, संग मेरे इसी देहरी इसी आंगन,
निस्वार्थ सा,
स्वत्व से परे, तेरा मन!

जाने कब हारा ये मन,
तेरे ही नैनों की गलियों में, बेचारा ये मन,
मैं हैरान सा,
छू लूं, प्यारा तेरा मन!

तुम बिन सूना जीवन,
अब तुम बिन, राहों में कितने हैं उलझन,
सब मैं हारा,
जीत चला, तेरा मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 18 June 2023

आशाओं तक

दो तीर, चले मन,
अधीर,
अन्तः कोई पीर लिए मन!

इक तीर, ठहराव भरा,
विस्तृत, आशाओं का द्वार हरा,
दूजे, धार बड़ा,
पग-पग, इक मझधार खड़ा,
आशाएं, बांध चले मन!

छिछली सी, राहों पर,
अन्तहीन, उथली सी चाहों पर,
उस ओर चले,
जिस ओर, सन्नाटों सा शोर,
अल्हड़, मौन रहे मन!

सांझ, किरण कुम्हलाए,
‌निराशाओं के, बादल ले आए,
चले मौन पवन,
बांधे कब ढ़ाढ़स, तोड़ चले,
बंध, तोड़ बहे ये मन!

धूमिल सी, वो आशाएं,
छिछली सी, ये अंजान दिशाएं,
खींच लिए जाए,
थामे, धीरज का इक दामन,
सरपट, दौड़ चले मन!

दो तीर, चले मन,
अधीर,
अन्तः कोई पीर लिए मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 21 May 2023

शाख


उम्मीदों-नाउम्मीदों के, साए तले,
बह चली इक सदी....

पतझड़ों के मध्य, पाले उम्मीदें कई,
चुप थी, कोई शाख,
उन रास्तों पे,
बह रही थी, जिधर इक सदी....

मध्य कहीं, सपनों सी, बहती बयार,
ले आई इक बहार,
वो भी झूमी,
झूम रही थी, जिधर इक सदी....

उड़ चले, कहीं, सपने बनकर राख,
बिखरे वे पात-पात,
कैसी ये वात,
बहा ले चली, जिधर इक सदी....

छूटी कब आशा, अरमान जरा सा,
इक उम्मीद हरा सा,
मन भरा सा,
देखे उधर ही, जिधर इक सदी....

पलट ही आएंगी, गुजरती सदियां,
खिल आएंगे, पलाश,
इक नवहास,
नवआस उधर, जिधर इक सदी....

उम्मीदों-नाउम्मीदों के, साए तले,
बह चली इक सदी....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 16 May 2023

अक्सर

अक्सर, जग आए इक एहसास....

रुक जाए, घन कोई चलते-चलते,
घिर आए, इक बदली,
गरजे कोई बादल,
चमके बिजुरी,
उस सूने आकाश!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

झुक जाए, पेड़ घना सूने से रस्ते,
और संग करे अटखेली,
छू कर बहे पवन,
वही अलबेली,
हो, जिसकी आस!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

हो अधीर मन, पाने को इक पीड़,
ज्यूं सदियों अंक पसारे,
बैठा हो, इक तीर,
बहते वे धारे,
ठहर जाते काश!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

क्यूं, छल जाए अनमनस्क मन,
क्यूं, छलके कोई नयन,
क्यूं, रुक जाए सांस,
क्यूं, टूटे आस,
क्यूं, विरोधाभास!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 6 May 2023

कौन लाया

जगाए हैं किसने, दिन ये ख्वाहिशों वाले!

बन गई, सपनों की, कई लड़ियां,
खिल उठी, सब कलियां,
गा रही, सब गलियां,
कौन लाया, बारिशों के ये सर्द उजाले!
दिन ये ख्वाहिशों वाले!

जगाए हैं किसने......

अब तलक, सोए थे, ये एहसास,
ना थी, होठों पे ये प्यास,
न रंग, ना ही रास,
जलाए है किसने, मेरी राहों पे उजाले!
पल ये ख्वाहिशों वाले!

जगाए हैं किसने......

रंग जो अब छलके, पग ये बहके,
छू जाए कोई, यूं चलके,
ज्यूं ये पवन लहके,
लिए कौन आया, भरे रंगों के ये हाले!
क्षण ये ख्वाहिशों वाले!

जगाए हैं किसने, दिन ये ख्वाहिशों वाले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 30 April 2023

मूंदो तो पलकें

मूंदो तो पलकें,
और, छू लो, उन बूंदों को,
जो रह-रह छलके!

हो शायद, नीर किसी की नैनों का,
आ छलका हो, पीर उसी का,
या गाते हों, कोई गीत,
समय की धुन पर, हलके-हलके!

मूंदो तो पलकें!

समझ पाओगे, डूबे नैनों में है क्या,
बहता सा क्यूं वो इक दरिया,
झर-झर, बहते वे धारे,
हर-दम रहते क्यूं, छलके-छलके!

मूंदो तो पलकें!

विचलित क्यूं सागर, शायद जानो,
हलचल उसकी भी पहचानो,
तड़पे क्यूं, आहत सा,
लहरें तट पर, क्यूं, बहके-बहके!

मूंदो तो पलकें!

चुप-चुप हर शै, जाने क्या कहता,
बहते से, एहसासों में रमता,
कभी, भर आए मन,
जज्बात कभी ये, लहके-लहके!

मूंदो तो पलकें,
और, छू लो, उन बूंदों को,
जो रह-रह छलके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 13 April 2023

याद

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

वो दिन थे या, पलक्षिण थे,
पहर गुजरा, अलसाया सा दिन गुजरा, 
रात गई, जुगनू की बारात गई,
युग बीता, उन जज्बातों से!

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

भटके मन, उन गलियों में,
आहट जिनसे, उन पल की ही आए,
उम्मीदें, उन लम्हातों से ही बांधे,
बिखरे खुद, जो हालातों से!

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

अक्सर, आ घेरे वो लम्हा,
पूछे मुझसे, वो था क्यूं इतना तन्हा!
सिमट गए, क्यूं, बलखाते पल!
बारिश की, भींगी रातों से!

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

चांद ढ़ले, जब तारों संग,
बिखराए, उनके ही, आंचल के रंग,
सुधि हारे दो नैन दिवस ही भूले,
झिलमिल सी, उन बातों में!

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)