Monday, 20 October 2025

रौशनी

अंधेरी हैं गलियां, इक दीप तो जलाओ,
यूं गगन पर, टिमटिमाते ओ सितारे, 
जरा, रौशनी ले आओ!

प्रदीप्त हो जलो, बस यूं न टिमटिमाओ,
अवरोध ढ़ले, किरण चहुं ओर जले,
जरा, बांहे तो फैलाओ! 

तू करे इंतजार क्यूं, और कोई बात क्यूं,
डर के यूं, क्यूं जले, चुप, यूं क्यूं रहे,
बस यूं ना टिमटिमाओ!

न होते तुम अगर, ना जगती उम्मीद ये,
रहता जहां पड़ा, यूं ही अंधकार में,
विश्वास, यूं भर जाओ!

विलख रहा जो मन, तू उनको आस दो,
मन के अंधकार को, यूं प्रकाश दो,
इक विहान, बन आओ!

पुकारती हैं राहें, इक दीप तो जलाओ,
यूं गगन के, टिमटिमाते से सितारे, 
जरा, रौशनी ले आओ!

Sunday, 19 October 2025

राह दिखाए रब

आश लिए कितने, गिनता अपनी ही आहें,
घिरा किन विरोधाभासों में, जाने मन क्या चाहे,
कभी उमड़ते, जज्बातों के बादल,
कभी, सूना सा आंचल!

बंधकर, कितनी बातों में, बंधती है आशा,
पलकर, कितनी आशों में, टूटी कितनी आशा,
कभी बुझ जाती, हर इक प्यास,
कभी, रह जाता प्यासा!

उस पल रह जाता, बस इक विरोधाभास,
उसी इक पल, जग जाता, जाने कैसा विश्वास,
कभी, दुविधाओं भरा वो आंगन,
कभी, पुलक आलिंगन!

उम्मीदें ले आती, आवारा मंडराते बादल,
दिलासा दे जाते, सहलाते हवाओं के आंचल,
क्षण भर को, जग उठती उम्मीदें,
फिर, छूटी, सारी उम्मीदें!

बंधा जीवन, मध्य इन्हीं विरोधाभासों में,
कटता हर क्षण, यूं उपलाते इन एहसासों में,
अकस्मात, कोरे पन्नों से जज्बात,
कह उठते, मन की बात!

दोनों ही तीर, उमड़े, जज्बातों के भीड़,
कभी छलक उठते ये पैमाने, बह उठते नीर,
ढ़ाढस, इस मन को, कौन दे अब,
राह दिखाए, वो ही रब!

Wednesday, 1 October 2025

अनुरूप

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं, 
और, गीत वही दोहराऊं!

इक मैं ही हूं, जब तेरी हर आशाओं में,
मूरत मेरी ही सजती, जब, तेरे मन की गांवों में,
भिन्न भला, तुझसे कैसे रह पाऊं,
क्यूं और कहीं, ठाव बसाऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...

सपने, जो तुम बुनती हो मुझको लेकर,
रंग नए नित भरती हो, इस मन की चौखट पर,
हृदय, उस धड़कन की बन जाऊं,
कहीं दूर भला, कैसे रह पाऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...

बहती, छल-छल, तेरे नैनों की, सरिता,
गढ़ती, पल-पल, छलकी सी अनबुझ कविता,
यूं कल-कल, सरिता में बह जाऊं,
कविता, नित वो ही दोहराऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...

मुझ बिन, अधूरी सी, है तेरी हर बात, 
अधूरी सी, हर तस्वीर, अधूरे, तेरे हर जज्बात,
संग कहीं, जज्बातों में, बह जाऊं,
संग उन तस्वीरों में ढल जाऊं!

मन चाहे, अनुरूप तेरे ढ़ल जाऊं...
और, गीत वही दोहराऊं!

Thursday, 25 September 2025

व्यतीत

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

व्यतीत, हुआ जाता हूं, पल-पल,
अतीत, हुआ जाता हूं,
फलक पर, उगता था, तारों सा रातों में,
कल तक था, सबकी आंखों में,
अब, प्रतीत हुआ जाता हूं! 

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

कल, ये परछाईं भी संग छोड़ेगी,
हर पहलू मुंह मोड़ेगी,
सायों सा संग था, खनकता वो कल था,
सर्दीली राहों में, वो संबल था,
अब, प्रशीत हुआ जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

जाते लम्हे, फिर लौट ना आयेंगे,
कैसे अतीत लौटाएंगे,
लम्हे जो जीवंत थे, लगते वो अनन्त थे,
अंत वहीं, वो उस पल का था,
इक गीत सा ढ़ला जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

छिन जाएंगे, शेष बचे ये पहचान,
होगी शक्ल ये अंजान,
आ घेरेंगी शिकन, शख्त हो चलेंगे पहरे,
कल तक, धड़कन में कंपन था,
अब, प्रतीक बना जाता हूं!

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

क्षण, ज्यूं क्षणभंगुर, हुआ व्यतीत,
क्षण यूं ही बना अतीत,
फलक पर, वो तारा ही कल ओझल हो,
ये आंखें सबकी भी बोझिल हों,
यूंही, प्रतीत हुआ जाता हूं! 

अतीत बन, ढ़ला जाता हूं....

Sunday, 21 September 2025

अचानक

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए!

धुआं, खुद ही छट जाएगा,
हट जायेगा, धुंध, 
रख कर, खुद को अलग,
इस आग को, होने दीजिए, स्वतः सुलग,
फूटेगी इक रोशनी,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

स्वतः, जम जाते हैं कोहरे,
कोहरों का क्या?
उमड़ते रहते हैं ये बादल,
बूंदें स्वतः ही संघनित होती है हवाओं में,
सुलगेगी जब आग,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

धुंधली ना हो जाए यकीन, 
जरा दो भींगने,
विश्वास की सूखी जमीं,
बरसने दो बादलों को, हट जाने दो नमीं,
उभरने दो आकाश,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

कभी, मन को भी कुरेदिए,
ये परतें उकेरिए,
दबी मिलेंगी, कई चाहतें,
उभर ही उठेंगी, कोमल पलों की आहटें,
बज उठेगा संगीत,
अचानक ही, सब होगा स्पष्ट...

न रोकिए, अचानक ही होने दीजिए! 

Monday, 8 September 2025

चुप जो हुए तुम

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

रही अधूरी ही, बातें कई,
पलकें खुली, गुजरी न रातें कई,
मन ही रही, मन की कही,
बुनकर, एक खामोशी,
छोड़ गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

पंछी, करे क्या कलरव!
तन्हा, उन शब्दों को कौन दे रव!
ढ़ले अब, एकाकी ये शब,
चुनकर, रास्ते अलग,
गुम हुए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

शायद, मिल भी जाओ!
हैं जो बातें अधूरी, फिर सुनाओ!
फिर, ये चूड़ियाँ खनकाओ,
यहीं, रख कर जिन्हें,
भूल गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

Saturday, 6 September 2025

शुक्रिया पाठकगण - 500000 + Pageview

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