Monday, 8 September 2025

चुप जो हुए तुम

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

रही अधूरी ही, बातें कई,
पलकें खुली, गुजरी न रातें कई,
मन ही रही, मन की कही,
बुनकर, एक खामोशी,
छोड़ गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

पंछी, करे क्या कलरव!
तन्हा, उन शब्दों को कौन दे रव!
ढ़ले अब, एकाकी ये शब,
चुनकर, रास्ते अलग,
गुम हुए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

शायद, मिल भी जाओ!
हैं जो बातें अधूरी, फिर सुनाओ!
फिर, ये चूड़ियाँ खनकाओ,
यहीं, रख कर जिन्हें,
भूल गए तुम!

चुप जो हो गए, तुम...
खो गए रास्ते, शब्द वो अनकहे हो गए गुम!

Saturday, 6 September 2025

शुक्रिया पाठकगण - 500000 + Pageview


500000 (+) पेज व्यू - शुक्रिया पाठकगण


माननीय पाठकगण,

अब तक 500000 (पांच लाख) से अधिक PAGEVIEW देकर सतत लेखन हेतु प्रेरित करने के लिए कविता "जीवन कलश" के समस्त पाठक-गणों का शुक्रिया व अभिवादन।

कामना है कि जीवन एक यात्रा के समान आपके साथ यूं ही बीतता रहे....
हमारे इस ब्लॉग पर बारंबार पधारने और आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने हेतु हार्दिक आभार।  आपके सतत् सहयोग, उत्साहवर्धन व प्रेरणा के बिना यह संभव न हो पाता।


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आभार - REFERRING SITES






समस्त Referring साइट्स एवं विश्व भर के पाठकों का अभिवादन।।।।

कोटिशः धन्यवाद, नमन व आभार।


- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 4 September 2025

आत्मश्लाघा

कर, स्मृतियों को, आत्म-साथ, 
मुग्ध होते थे, पल सारे,
कुंठित मन, अब इन विस्मृतियों से हारे,
हुई स्याह, वो, गलियां!

शायद, धूमिल हो रही स्मृतियाँ,
पसर गईं, स्याह परतें,
मुकर गई, स्मृतियों में लिपटी वो गलियां,
बिखर गई, विस्मृतियाँ!

खुल कर, बिखरे, बुने जो धागे,
नैन उनींदें, अब जागे,
बिखरती, आत्मश्लाघा में पिरोई लड़ियां,
पसरती, ये विस्मृतियाँ!

अब उलझाता, मन को, ये द्वंद्व,
बोझिल सा, हर छंद,
उकेर दूं स्याह परतें, उकेरूँ विस्मृतियाँ,
उकेर दूं, विसंगतियां!

शायद, पुनः, मुखर हो स्मृतियाँ,
आत्मश्लाघित दुनियां,
पुनः कर पाऊं, आत्म-साथ उन को ही,
पुनः रौशन हो गलियां!

Monday, 1 September 2025

अनवरत प्रवाह

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

है जीवन, तो है ये चंचलता,
शाश्वत है, जीवंतता,
खुद को ये बुनता,
स्वतः ही, उठता इक लहर सा,
स्वयं, प्रवाह बन चलता,
उफनती मझधार में,
ये ही संबल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

गुदगुदाती, बहती ये पवन,
यूं, रोक लेते कदम,
यूं, छू लेते बदन,
सरकती, यूं जमीं कदमों तले,
सोए, एहसासों को लगे,
ज्यूं, संग कोई चले,
और दे संबल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

बिन पूछे, उभर आते रंग,
खींच ले जाते, संग,
वो चटकते अंग,
लहराती, झूमती सी ये वादियां,
मुखर होती ये कलियां,
पंछियों के कलरव,
मीठे हलचल!

अनवरत प्रवाह को, कब किसी ने कहा,
तू साथ चल!

Wednesday, 27 August 2025

अब जो हुआ


अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

इन संवेदनाओं को अब, सहेजना होगा,
ढ़ाल कर, कहीं चेतनाओं में,
मूर्त कल्पनाओं में,
भरकर अल्पनाओं में, रखना होगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

पल जो हुए कल, रुलाएंगी वो ही कल,
जागते वो ही पल, होंगे मूर्त,
जगाएंगे, व्यर्थ में,
अब जो हैं ये पल, उन्हें सीना होगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

अब बिंब हो उठी हैं, समस्त असंवेदना,
सुसुप्त सी हो चली, चेतना,
सहेजे, कौन भला,
अब जो ढ़ल रहा, ये पल न रुकेगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

बिखेरेंगे न ये रंग, वेदनाओं के आंगन,
दोहराएंगे, न ये गीत कोई,
अनसुना, सब कहा,
लौट कर, फिर न अब दोहराएगा!

अब जो हुआ, अब न वो फिर होगा....

Tuesday, 19 August 2025

शुक्र है...

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं तो, लगता था,
तृण-विहीन सा है, तेरे एहसासों का वन,
बंजर सा मन,
लताएं, उग ही न पाते हों जिन पर,
जमीं ऐसी कोई!
पर, शुक्र है, उग तो आए एहसास,
इस राह में, 
इक बहार बन, छाए तो तुम!

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं, बोल पड़ी, सदी,
जग उठी, दफ्न हो चली, कहानियां कई,
संघनित हो बूंदें, 
बिखर गईं, ठूंठ हो चली शाख पर,
झूमती पात पर,
बहक उठे, फिर वो सारे जज्बात,
इक एहसास,
या ख्याल बन, छाए तो तुम!

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

यूं दे गया, फिर कोई सदा,
ज्यूं अचानक ही मिला, मंजिलों का पता,
पुकारती, दो बाहें,
यूं, प्रशस्त कर गई, विलुप्त सी राहें,
उभरी, वही नदी,
समेट चली थी जो, सदियां कई,
इस धुंध में,
इक सदा बन, छाए तो तुम!

शुक्र है, चलो, आए तो तुम!

Thursday, 14 August 2025

ताना

कभी-कभी, खुल जाते वक्त के तहखाने...

यूं ही, छिड़ जाते, बिसरे कई तराने,
शिकायतें अनगिनत पलों के, अंतहीन से ताने,
कर भी ना पाऊं, अब उनको अनसुना,
समझ भी न पाऊं, क्यूं उसने बूना!

उधेड़-बुन इक, फिर, बुनता ये मन,
वक्त के, किस पहलू से, थी मेरी क्या अनबन!
छूआ ही कब, मैने, संवेदनाओं के तार,
बीते वो पल, हैं क्यूं इतने बेजार!

अनकही, रह गई मेरी ही अनसुनी,
शिकायतें, एकाकी से, इस मन की ही थी दूनी,
शब्दहीन ही रह गए थे, वो शिकवा सारे,
गवाह अब भी, वो गगन के तारे!

ठहरे कुछ पल, चुभ जाते कांटों से,
बनकर कुछ बूंदें, जब-तब, बह आते आंखों से,
चलता कब वश, जब करते वो बेवश,
खींच ले जाते, उसी ओर बरवस!

मन कब चाहे, फिर, उस ओर जाना,
कंपित-गुंजित पल में, जी कब चाहे, मर जाना,
ठहरा, इक दरिया सा, पर वो ही पल,
संग रहता, एक साया सा हरपल!

काश! दफन हो जाते, सारे अफसाने,
फिर कभी ना खुलते, वक्त के वो बंद तहखाने,
संतप्त रह पाती, सोई मेरी संवेदना,
उधेड़-बुन, न बुनती कोई वेदना!

कभी-कभी, खुल जाते वक्त के तहखाने...