Monday, 17 April 2017

वक्त के सिमटते दायरे

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

अंजान सा ये मुसाफिर है कोई,
फिर भी ईशारों से अपनी ओर बुलाए रे,
अजीब सा आकर्षण है आँखो में उसकी,
बहके से मेरे कदम उस ओर खीचा जाए रे,
भींचकर सबको बाहों में अपनी,
रंगीन सी बड़ी दिलकश सपने ये दिखाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

छीनकर मुझसे मेरा ही बचपन,
मेरी मासूमियत दूर मुझसे लिए जाए रे,
अनमने से लड़कपन के वो बेपरवाह पल,
मेरे दामन से पल पल निगलता जाए रे,
वो लड़कपन की मीठी कहानी,
भूली बिसरी सी मेरी दास्तान बनती जाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

टूटा है अल्हर यौवन का ये दर्पण,
वक्त की विसात पर ये उम्र ढली जाए रे,
ये रक्त की बहती नदी नसों में ही सूखने लगी,
काया ये कांतिहीन पल पल हुई जाए रे,
उम्र ये बीती वक्त की आगोश में ,
इनके ये बढते कदम कोई तो रोके हाए रे!

हैं ये वक्त के सिमटते से दायरे,
न जाने ये कहाँ, किस ओर लिए जाए रे?

No comments:

Post a Comment