Thursday, 31 May 2018

चराग

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

यूं तो रौशनी भरते रहे, वो सारी रात,
अंधेरों संग अकेले, लड़ते रहे वो सारी रात,
तप्त तेल संग, तलते रहे अंग-अंग,
पर, ये तंज अंधेरे, कसते रहे असह्य व्यंग,
कालिख चराग की, कह गई थी ये बात.....

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

दिल में ही थी जली, दिल की बात,
बुझ गए जलते हुए, खुद ही वो चराग,
जल चुके थे, पतंगे कई साथ-साथ,
जल चुकी थी प्रीत, और जले थे जज्बात,
रात के दामन में, मिट गए थे ये चराग.....

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

युं धू-धू कर जले, चरागों के ख्वाब,
ज्यूं चिंता में, भस्म हुए हों मरने के बाद,
मन में लिए, कुछ अनकही सी बात,
चिताओं सी दहकती, वो जलती सी रात,
बंद पलकों तले, ढ़ल गई वो भी साथ......

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

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