खुद की परिभाषा, कैसे लिख पाऊँ!
सहज नहीं, खुद पर लिख पाना,
खुद से, खुद में छुप जाना,
कल्पित सी बातें हों, तो विस्तार कोई दे दूँ,
अपनी अवलम्बन का, ये सार,
खुद का, ये संसार,
भला, गैरों को, कैसे दे दूँ!
खुद अपनी व्याख्या, कैसे कर जाऊँ ?
मूरत हूँ माटी की, मन है पहना,
ये जाने, चुप-चुप सा रहना,
शायद हूँ, किसी रचयिता की मूर्त कल्पना!
इर्द-गिर्द, इच्छाओं का सागर,
छू जाए, आ-आकर,
कैसे, ये विचलन लिख दूँ!
चुप सा वो अनुभव, कैसे लिख पाऊँ !
उथल-पुथल, मन के ये हलचल,
राज कई, उभरते पल-पल,
परिदग्ध करते, वो ही बीते पल के विघटन!
वो गुंजन, उन गीतों के झंकार,
विस्मृत सा, वो संसार,
व्यक्त, स्वतः कैसे कर दूँ!
खुद की अभिलाषा, कैसे लिख जाऊँ!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-07-2020) को "सावन का उपहार" (चर्चा अंक-3770) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आभार आदरणीय।
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteस्वागत है आदरणीय ओंकार जी।
Deleteबहुत सुंदर!
ReplyDeleteउथल-पुथल, मन के ये हलचल,
राज कई, उभरते पल-पल,
परिदग्ध करते, वो ही बीते पल के विघटन!
वो गुंजन, उन गीतों के झंकार,
विस्मृत सा, वो संसार,
व्यक्त, स्वतः कैसे कर दूँ!
अभिनव सृजन।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया कुसुम जी।
Deleteवाव.... सार से भरे ये अनमोल पंक्तियाँ। बहुत कुछ कह रही हैं, आपकी कवितायें अनोखे हैं सर।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद
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