Sunday, 26 July 2020

उसी पथ पर

सर्वदा, तय पथ पर, तन्हा वो सूरज चला!
बिखेर कर, दिन के उजाले,
अंततः, छोड़ कर,
तम के हवाले!
बे-वश, वो सूरज ढ़ला!

पल, थे वो गम के, जो सांझ बन के ढ़ला!
रुपहले से, उस फलक पर,
बिखरे, रंग काले,
धूमिल उजाले,
बे-रंग, हो सूरज ढ़ला!

हठात् था मैं खड़ा, उसी की सोंच में भूला!
उन्हीं अंधेरों में, खड़ा-खड़ा,
डरा था जरा-जरा,
मन था भरा,
निःशब्द, वो सूरज ढ़ला!

आस कल की लिए, उसी पथ मैं भी चला!
पीछे, क्षितिज पर, उसी के,
जा, मिलने उसी से,
उसे ही बुलाने,
बे-वश, जो सूरज ढ़ला!

सर्वथा, उसी पथ पर, अधखिला वो मिला!
प्रकीर्ण, प्रखर व स्थिर-चित्त,
खोले, दो बाहें पसारे,
गगन के पार,
हँस के, वो सूरज खिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

14 comments:

  1. बहुत खूब ... अच्छी रचना है ...

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  2. बहुत सुंदर रचना आदरणीय

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  3. वाह !लाजवाब अभिव्यक्ति।
    सादर

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  4. सादर नमस्कार,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (२८-७-२०२०) को
    "माटी के लाल" (चर्चा अंक 3776)
    पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है

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  5. सुन्दर रचना आदरणीय

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  6. आ परुषोत्तम कु सिन्हा जी , सूरज की दिवस यात्रा और सांझ, रात्रि के पश्चात हो रहे अरुणोदय से एक सकारात्मक सन्देश की अभिव्यक्ति करती सुन्दर रचना ! --ब्रजेन्द्र नाथ

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    1. आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ आदरणीय ब्रजेन्द्र जी। हमसे जुड़ने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

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