Sunday, 5 July 2020

शंकाकुल मन

आकुल करती, हल्की-सी भोर,
व्याकुल कोयल की कूक,
ढ़ुलमुल सी, बहती ठंढी पवन,
और शंकाकुल,
ये मन!

सुबह, जाने क्या-क्या ले आई?
क्यूँ, कोयल थी भरमाई?
क्यूँ पवन, यूँ बहती इठलाई?
प्रश्नों में घिरा,
ये मन!

है वो भोर की किरण, या मन का प्रस्फुटन!
वो गूंज है कोयल की, या अपनी ही धड़कन!
चलती है पवन या तेज है सांसों का घन!
यूँ बादलों को, निहारते ये नयन,
दिन में जागते से, ये सपन,
घबराए क्यूँ ना,
ये मन!

सपना ये कैसा? वो भोर इक हकीकत सा!
वो रव, कूक, वो कलरव, मन के प्रतिरव सा!
ढ़ुलमुल वो पवन, च॔चल सी इस मन सा,
असत्य के अन्तस, इक सत्य सा,
कल्पना कोई, इक मूरत सा,
पर माने ना,
ये मन!

धुन कोई, बुनता वो अपनी ही,
प्रतिरव, सुनता अपनी ही,
भ्रमित करते स्वर, वो आरव,
उस पर गरजाते,
वो घन!

फिर जगती, आकुल होती भोर,
कूकती, व्याकुल सी कूक,
बहती, ढ़ुलमुल सी ठ॔ढ़ी पवन,
और शंकाकुल,
ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 05 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय "अंजान" जी। मेरे ब्लाॅग पर स्वागत है आपका।

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  3. फिर जगती, आकुल होती भोर,
    कूकती, व्याकुल सी कूक,
    बहती, ढ़ुलमुल सी ठ॔ढ़ी पवन,
    और शंकाकुल,
    ये मन!,मन की तो प्रवृति ही ऐसी ही हैं, बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति सादर नमन आपको

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    1. आपके भाव प्रवण टिप्पणी हेतु आभारी हूँ आदरणीया कामिनी जी। । धन्यवाद।

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  4. कूकती कोयल के साथ हूकते विचलित मन के मार्मिक भाव | सुंदर अभिव्यक्ति पुरुषोत्तम जी | बहुत दिनों बाद लिख पायी जिसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ | पर आती अक्सर हूँ और हर नयी रचना जरुर पढ़ती हूँ बस थोड़ा लिखने का समय नहीं मिल पता | नेरी शुभकामनाएं आपके लिए | लिखते रहिये यूँ ही निर्बाध म अविराम | सादर -|

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    1. शब्द कम होंगे आपकी प्रतिक्रिया पर आभार व्यक्त करने हेतु। भावों को चुनकर समेटना भी संभवन हो। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया।

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  5. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 17 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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