इक राह अनन्त, है जाना,
उलझे इन राहों में, मिथ्या को ही सच माना!
नजरों से ओझल, इक वो ही राह रहा,
भ्रम वो, कब टूटा!
मोह-जाल, माया का यह क्रम, कब छूटा!
दिग्भ्रमित, राह वही थामते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!
इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!
जो भी, जीवन में घटा,
इक कोहरा सा, अन्त-काल तक, कब छँटा!
इक मिथक सा, लिखा मन पर रहा,
मिटाए, कब मिटा!
पर, चक्र पर, काल की सब कुछ लुटा,
खुले हाथ, कुछ थामते हैं कब?
शायद, ये जानते हैं सब!
इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!
वृहद, समय का विस्तार,
बेतार, संवाद कर रहा समय का तार-तार!
पर, मिथक ही, मैं विवाद करता रहा,
विवाद, कब थमा!
समय का, अनसुन संवाद चलता रहा,
अबिंबित, वो बातें मानते हैं कब!
शायद, ये जानते हैं सब!
इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteबेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteवृहद, समय का विस्तार,
ReplyDeleteबेतार, संवाद कर रहा समय का तार-तार!
पर, मिथक ही, मैं विवाद करता रहा,
विवाद, कब थमा!
समय का, अनसुन संवाद चलता रहा,
अबिंबित, वो बातें मानते हैं कब!
शायद, ये जानते हैं सब!
वाह!!! बहुत खूब चिंतन 👌👌👌🙏🙏
हृदयतल से आभार आदरणीया रेणु जी।
Delete