झूठा सा सच वो, ले चला मुझको यादों के वन में,
सच से भी प्यारा लगता है, वो झूठ मुझे इस जीवन में....
एक झूठ, जो सच से भी है प्यारा मुझको,
झूठ ही जब उसने कहा, तू बस प्यारा है मुझको,
खिले थे कितने ही कँवल, सपने दिखते थे मुझको,
झूठा सा सच वो, बाँध रहा अब भी मुझको।
क्यों लगता कोई झूठ, कभी सच से भी प्यारा,
कौन यहाँ कब बन जाता, पलभर में जीने का सहारा,
मिट्टी का है यह तन, पर मन तो ठहरा इक बेचारा,
प्यार ढ़ूंढ़ता उस झूठ में, फिरता दर-दर मारा।
तिनका भर ही, कुछ सच तो था ही उस झूठ में,
पल भर को ही सही, दिल धड़का तो था सच-मुच में,
झूठा ही सही, दिखी तो थी चमक तब उन नयनों में ,
भूलूँ भी कैसे, एक सहारा वो ही तो जीवन में।
वो झूठ, बस यूँ ही नही प्यारा मुझको जीवन में,
कुछ पल को भूले थे वो, खुद को इन बाहों के झूलों में,
अंगड़ाई ली थी उसने भी, तब इन साँसों की गर्मी में,
झूठ बना वो प्यारा, खेला जब संग वो सपनों में।
वो झूठ, दे गया कितने ही लम्हों की बेवश यादें,
पलकों में सपने ही सपनें, अविरल आँसू की सौगातें,
तन्मयता से गढ़ी झूठ, मन मे समाई वो प्यारी बातें,
हाथ गहे मैं सोचता, उसने की थी कितनी न्यारी बातें।
झूठा सा सच वो, ले चला मुझको यादों के वन में,
सच से भी प्यारा लगता है, वो झूठ मुझे इस जीवन में....