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Wednesday 12 January 2022

सच

सच कहूं तो, आसान नहीं सच कह पाना,
और कठिन बड़ा, सच सुन पाना!

सच का दामन, ज्यूं कांटों का आंगन,
चुभ जाते हैं, ये अक्सर,
कठिन बड़ा, ये पीड़ सह पाना!

इक शख्स, अलग ही होगा दर्पण में,
सम्मुख, अक्श भिन्न सा,
शायद, कर न पाओगे सामना!

जाओगे किधर, सच से मुंह फेरकर,
धिक्कारेगा, जमीर कल,
मुश्किल, तब खुद को थामना!

ह्रदय की मन्द गति में, एक नदी है,
पल नहीं, ये एक सदी है,
प्रबल बड़ा, यह सत्य जानना!

सच कहूं तो, आसान नहीं सच कह पाना,
और कठिन बड़ा, सच सुन पाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 17 April 2021

सब्र

यूँ, सब्र के धागों को तुम तोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत, 
पर, मुमकिन है, सच को पा लें हम,
यूँ ही, खो जाने की बातें,
अब और करो ना!

सच से, यूँ ही आँखें तुम फेरो ना!

अन्धियारा, छा जाने तक,
चल, बुझता इक दीप, जला लें हम,
यूँ ही, घबराने की बातें, 
अब और करो ना!

यूँ ही, आशा का दामन छोड़ो ना!

जाना है, उन सपनों तक,
हकीकत ना बन पाए, जो अब तक,
यूँ, मुकर जाने की बातें,
अब और करो ना!

जज्ब से, जज्बातों को मोड़ो ना!

हो, कितनी दूर, हकीकत,
यूँ सच को, झुठलाए कोई कब तक,
यूँ ही, बैठ जाने की बातें,
अब और करो ना

यूँ, जीवन से आँखें तुम फेरो ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 12 October 2020

मिथक सत्य

इक राह अनन्त, है जाना,
उलझे इन राहों में, मिथ्या को ही सच माना!
नजरों से ओझल, इक वो ही राह रहा,
भ्रम वो, कब टूटा!
मोह-जाल, माया का यह क्रम, कब छूटा!
दिग्भ्रमित, राह वही थामते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

जो भी, जीवन में घटा,
इक कोहरा सा, अन्त-काल तक, कब छँटा!
इक मिथक सा, लिखा मन पर रहा,
मिटाए, कब मिटा!
पर, चक्र पर, काल की सब कुछ लुटा,
खुले हाथ, कुछ थामते हैं कब?
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

वृहद, समय का विस्तार,
बेतार, संवाद कर रहा समय का तार-तार!
पर, मिथक ही, मैं विवाद करता रहा,
विवाद, कब थमा!
समय का, अनसुन संवाद चलता रहा,
अबिंबित, वो बातें मानते हैं कब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 26 July 2016

प्यारा झूठ

झूठा सा सच वो, ले चला मुझको यादों के वन में,
सच से भी प्यारा लगता है, वो झूठ मुझे इस जीवन में....

एक झूठ, जो सच से भी है प्यारा मुझको,
झूठ ही जब उसने कहा, तू बस प्यारा है मुझको,
खिले थे कितने ही कँवल, सपने दिखते थे मुझको,
झूठा सा सच वो, बाँध रहा अब भी मुझको।

क्यों लगता कोई झूठ, कभी सच से भी प्यारा,
कौन यहाँ कब बन जाता, पलभर में जीने का सहारा,
मिट्टी का है यह तन, पर मन तो ठहरा इक बेचारा,
प्यार ढ़ूंढ़ता उस झूठ में, फिरता दर-दर मारा।

तिनका भर ही, कुछ सच तो था ही उस झूठ में,
पल भर को ही सही, दिल धड़का तो था सच-मुच में,
झूठा ही सही, दिखी तो थी चमक तब उन नयनों में ,
भूलूँ भी कैसे, एक सहारा वो ही तो जीवन में।

वो झूठ, बस यूँ ही नही प्यारा मुझको जीवन में,
कुछ पल को भूले थे वो, खुद को इन बाहों के झूलों में,
अंगड़ाई ली थी उसने भी, तब इन साँसों की गर्मी में,
झूठ बना वो प्यारा, खेला जब संग वो सपनों में।

वो झूठ, दे गया कितने ही लम्हों की बेवश यादें,
पलकों में सपने ही सपनें, अविरल आँसू की सौगातें,
तन्मयता से गढ़ी झूठ, मन मे समाई वो प्यारी बातें,
हाथ गहे मैं सोचता, उसने की थी कितनी न्यारी बातें।

झूठा सा सच वो, ले चला मुझको यादों के वन में,
सच से भी प्यारा लगता है, वो झूठ मुझे इस जीवन में....