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Wednesday, 8 July 2020

तुम न बदले

धुंधले हुए, स्वप्न बहुतेरे,
धुंधलाए,
नयनों के घेरे,
धुंधला-धुंधला, हर मौसम,
जागा इक, चेतन मन!
मौन अपनापन,
वो ही,
सपनों के घेरे!

धूमिल, प्रतिबिम्बों के घेरे,
उलझाए,
उलझी सी रेखाएं,
बदलते से एहसासों के डेरे,
अल्हड़, वो ही मन,
तेरा अपनापन,
तेरे ही,
ख्यालों के घेरे!

बदली छवि, तुम न बदले,
तुम ही भाए,
अश्रुसिक्त हो आए,
ज्यूँ सावन, घिर-घिर आए,
भिगोए, ये तन-मन,
वो ही छुअन,
वो ही,
अंगारों के घेरे!

अंतर्मन, सोई मौन चेतना,
जग आए,
दिखलाए मुक्त छवि,
लिखता जाए, स्तब्ध कवि,
करे शब्द समर्पण,
संजोए ये मन,
तेरे ही,
रेखाओं के घेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 28 March 2019

नीर नही ये, मन के हैं मनके

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

कोई बदली सी, छाई होगी उस मन में,
कौंधी होगी, बिजली सी प्रांगण में,
टूट-टूटकर, बरसा होगा घन,
भर आया होगा, छोटा सा मन का आंगण,
फिर घबराया होगा, वो नन्हा सा मन,
संवाद चले होंगे, फिर नैनों से,
फूट-फूटकर, फिर रोए होंगे ये नयन!

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

नीरवता, किसी नें तोड़ी होगी मन की,
कहीं तन्द्रा, भंग हुई होगी उसकी,
प्रतिध्वनि, करती होगी बेचैन,
अकुलाहट में फिर, फेरे होंगे उसने मनके,
घबराया होगा, वो मूक बधिर सा मन,
कुछ मनके, टूटे होंगे उस मन,
फिर नैनों में, छाए होंगे अश्रु के घन!

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

कोई सागर, लहराता होगा उस मन में,
बार-बार, लहरें उठती होंगी उन में,
टकराती होंगी, दीवारें निरंतर,
आवेग कई, सहता होगा वो व्याकुल मन,
निरंतर, भीगे से रहते होंगे उसके तट,
लहर कई, तोड़ बहते होंगे पट,
फिर नीरधि, छलके होगे उस नयन!

कुछ बूँदें आँसू के, आ छलके हैं जो नैनों से,
नीर नहीं ये, मन के ही हैं मनके....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 26 March 2019

अश्रु, तू क्यूँ बहता?

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद टूटा, मन का घड़ा,
या बहती दरिया का मुँह, किसी ने मोड़ा,
छलक आए ये सूखे से नयन,
लबालब, ये मन है भरा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद बही, रुकी सी धारा,
या असह्य सी व्यथा, कह किसी ने पुकारा,
कुछ पल रही, पलकों में अटकी,
रोके, कब रुकी वो धारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद खुद, बही हो धारा,
या अन्तर्मन ही उभरा हो, दबा कोई पीड़ा,
भूली दास्ताँ, हो यादों मे उमरा,
बरबस, बही वो अश्रुधारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद हो, व्यथित वसुधा,
हो ख़ामोशियों की, कोई भीगी सी ये सदा,
कहीं व्योम में, जख्म हो उभरा,
बरस आई, बूँदों सी धारा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

शायद हो, रातों का मारा,
दुस्कर उन अंधियारों से, नवदल हो हारा,
अश्रुधार, छलक आईं कोरों से,
ओस, नवदल पर उभरा!

हुई जो पीड़ा, कण-कण है अश्रु से भरा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा