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Sunday 4 February 2024

उस रोज

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

उस रोज!
ठहरा था, सागर पल भर को,
विवश, कुछ कहने को,
उस, बादल से,
लहराते, उस आंचल से!

उस रोज!
किधर से, बह आई इक घटा!
बदली थी, कैसी छटा!
छलकी थी बूंदे,
सागर के, प्यासे तट पे!

उस रोज,
चीर गया था, कोई सन्नाटों को,
छेड़ गया, नीरवता को,
अवाक था, मैं, 
प्रश्न कई थे, उस पल में!

उस रोज,
किससे कहता मैं, सुनता कौन!
खड़ा यूं ही, रहा मौन,
यूं गिनता कौन!
वलय कई थे धड़कन में!

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

Saturday 13 August 2022

घन


हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

पहले छा जाना, मन को भा जाना,
धुंधला सा, ये गहरा आंचल, फिर फैलाना,
उतर आना, इक बदली सा आंगन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

यूं भर लेना नैनों में थोड़ा काजल,
ज्यूं रात, मचल कर,  गाती हो एक ग़ज़ल,
और साज कहीं, बजते हों उपवन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

फिर चाहे तू कहना मन की व्यथा,
या रखना, मन की बातें, मन में ही सर्वथा,
उतर आना, नीर सरीखे, नयनन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

सूना ये आंगन, संवर जाए थोड़ा,
सरगम की छमछम से, भर जाए ये जरा,
बज उठे शंख कई, इस सूनेपन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 15 July 2022

भूल जाता हूं


झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

गहराता वो क्षितिज, हर क्षण बुलाता है उधर,
खींच कर, जरा सा आंचल में भींच कर,
कर जाता है, सराबोर,
उड़ चलते हैं, मन के सारे उत्श्रृंखल पंछी,
गगन के सहारे, क्षितिज के किनारे,
छोड़ कर, मुझको,
ओढ़ कर, वो ही रुपहला सा आंगन,
भूल जाता हूं खुद को!

झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

वो टूटा सा बादल, विस्तृत नीला सा आंचल,
सिमटे पलों में, अजब सी, एक हलचल,
चहुं ओर, फैली दिशाएं,
टोक कर, मुझको, उधर ही बुलाए,
पाकर, रंगी इशारे,
देख कर, वादियों का पिघलता दामन,
भूल जाता हूं खुद को!

झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)