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Thursday, 20 January 2022

एकाकी बरगद

अब, कम ही खिल पाते हैं बरगद!
कहां दिख पाते हैं, बरगद!

जटाओं वाले, बूढ़े, विशालकाय, बरगद,
निःस्वार्थ, भावी राह करे प्रशस्त,
आत्मविश्वास, स्वाभिमान के द्योतक,
प्रगति के, ध्वज-वाहक,
नैतिक मूल्यों के संवाहक, ये बरगद!

अब, कम ही निखर पाते हैं बरगद!

हो जाते खुश, ले अपनों की खैर-खबर,
आशा में, उनकी ही, होते जर्जर,
बैठे राह किनारे, सदियों, बांह पसारे,
बे-सहारे, अतीत किनारे,
संबल, आशाओं के, बन हारे बरगद!

अब, कम ही संवर पाते हैं बरगद!

देखे बसन्त कई, गुजारे कितने पतझड़,
झेले झकझोरे, हवाओं के अंधर,
विषम हर मौसम, खुद पे रह निर्भर,
सहेजे, इक स्वाभिमान,
गगन तले, कितने एकाकी, बरगद!

अब, कम ही खिल पाते हैं बरगद!
कहां दिख पाते हैं, बरगद!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 29 May 2021

तन्हा राहें

कौतुहल वश!
देखा, जो मुड़ के बस!
पाया, कितनी तन्हा थी, वो राहें,
जिन पर,
हम चलते आए!
सदियों छूट चले थे पीछे,
कौन, उन्हें पूछे!

पुकारती, वो राहें,
शायद, कुछ आशाएं, छूटी थी पीछे,
कुछ मेरे, कल के संबल,
कुछ, भावनाओं के, सूखे कँवल,
टूटे से, कुछ सपने,
कुछ आहें!

कल के, सारे पल,
कल तक, कितने झंकृत थे, हर पल,
चुप हो, बिखरे राहों पर,
सम्हाले कौन! कौन उन्हें बहलाए!
वो तो, इक बेजुबां,
रीता जाए!

निशांत, हो चले वो,
पर, अशान्त मन में, अब भी पले वो,
जाने, बांधे, किन घेरों में,
खींचे, रह-रह, भूले से उन डेरों में,
भूल-भुलैय्या सी, वो,
तन्हा राहें!

कौतुहल वश!
देखा, जो मुड़ के बस!
पाया, कितनी तन्हा थी, वो राहें,
जिन पर,
हम चलते आए!
सदियों छूट चले थे पीछे,
कौन, उन्हें पूछे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 24 May 2021

संबल

एकाकी, मैं कब था!
कुछ यादें थी,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

अनवरत, चला वक्त का रथ,
रूठ चले कितने, अपने, छूट चले कितने,
उनकी ही, मीठी यादों के पल,
उभर आए, बन कर संबल,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

बन बिखरे, आँखों के मोती,
बिन मौसम, इक बारिश, यूँ रही भिगोती,
भींगे से हम, भीगे यादों के क्षण,
हर क्षण, बरसा वो सावन,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

रिक्तताओं के मध्य, मरुवन,
व्यस्तताओं के मध्य, पुकारता वो दामन,
समेटता, गहराता वो आलिंगन, 
हर पल, आबद्ध रहा मन,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

एकाकी, मैं कब था!
कुछ यादें थी,
यूँ, मैं था,
ज्यूँ, संग मेरे मेरा रब था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 November 2020

अतीत-मेरा सरमाया

गर हो पाता!
तो, मुड़ जाता, मैं, अतीत की ओर,
और, व्यतीत करता,
कुछ पल,
चुन लाता, कुछ, बिखरे मोती!

मेरा सरमाया!
वो छूटा कल, जो मैं, चुन ना पाया,
मुझसे ही, रूठा पल,
टूटा पल,
समेट लाता, सारे, हीरे मोती!

हो ना पाया!
खोया अतीत, तुझे मैं, छू ना पाया,
पर तुझमें है, मेरा अंश,
मेरा कल,
जलाए, जो, मन की ज्योति!

वर्तमान ये मेरा!
चाहे, अनुभव का, इक संबल तेरा,
मद्धिम, प्रदीर्घ सवेरा,
दुग्ध कल,
और, अंधेरो में, इक ज्योति!

चल उड़ जा!
ओ मन के पंछी, जा, दूर वहीं जा,
अतीत, जहाँ है मेरा,
बीते पल,
चुग ला, बिखरे, वे मेरे मोती!

गर हो पाता!
तो, मुड़ जाता, मैं, अतीत की ओर,
और, व्यतीत करता,
कुछ पल,
चुन लाता, सारे, बिखरे मोती!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 27 July 2018

पथ परिचायक

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

पथ तूने जो दिखलाया मुझको,
उस पथ ही मैं रहा अग्रसर,
कंटक ही कंटक मिले थे पथ पर,
निर्बाथ चला मैं उन कांटो पर,
हँसकर सहे मैंने, दंश बड़े दुखदायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

पग-पग सांसें थी इक जंग सी,
सुख! जैसे उड़ती पतंग थी,
बातें तेरी थी मेरी राहों की शिखा,
दीपक सा मैं हरदम ही जला,
सहता रहा मैं, वो तपिश पीड़ादायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

सुख की नींद मिली ना पलभर,
दुर्गम राहों पर चलता चला,
तिल तिल जल फूल सा खिला,
हँसकर गम से गले मिला,
चुपचाप सहे, पीर बड़े कष्टदायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?

अब सफल हुआ या मैं असफल,
साधना तेरी ही है मेरा संबल,
विमुख मैं इनसे पल भर भी नहीं,
नायक मेरा है बस तू ही,
साधना तेरी, अति ही सुखदायक!

ओ मेरे नायक, मेरे पथ परिचायक!
अब तू ही मुझको बता,
क्या बन पाया मैं तेरे लायक?