कौतुहल वश!
देखा, जो मुड़ के बस!
पाया, कितनी तन्हा थी, वो राहें,
जिन पर,
हम चलते आए!
सदियों छूट चले थे पीछे,
कौन, उन्हें पूछे!
पुकारती, वो राहें,
शायद, कुछ आशाएं, छूटी थी पीछे,
कुछ मेरे, कल के संबल,
कुछ, भावनाओं के, सूखे कँवल,
टूटे से, कुछ सपने,
कुछ आहें!
कल के, सारे पल,
कल तक, कितने झंकृत थे, हर पल,
चुप हो, बिखरे राहों पर,
सम्हाले कौन! कौन उन्हें बहलाए!
वो तो, इक बेजुबां,
रीता जाए!
निशांत, हो चले वो,
पर, अशान्त मन में, अब भी पले वो,
जाने, बांधे, किन घेरों में,
खींचे, रह-रह, भूले से उन डेरों में,
भूल-भुलैय्या सी, वो,
तन्हा राहें!
कौतुहल वश!
देखा, जो मुड़ के बस!
पाया, कितनी तन्हा थी, वो राहें,
जिन पर,
हम चलते आए!
सदियों छूट चले थे पीछे,
कौन, उन्हें पूछे!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
Bahut hi khubsoorat rachna...
ReplyDeleteMany a thanks, to my unknown well-wisher, for the quick and encouraging remarks.
Deleteपुकारती, वो राहें,
ReplyDeleteशायद, कुछ आशाएं, छूटी थी पीछे,
कुछ मेरे, कल के संबल,
कुछ, भावनाओं के, सूखे कँवल,
टूटे से, कुछ सपने,
कुछ आहें!
बहुत बहुत सुंदर रचना बधाई हो आपको आदरणीय
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया शकुन्तला जी। ।।।
Deleteवाह।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद शिवम जी
Deleteराहें कब थीं तन्हाँ ..... चलते ही रहते थे लोग .... लेकिन आज ऐसा वक़्त है कि कोई एक भी चलता है राह में ,तो राह शायद पूछ बैठे .... साथी कहो कहाँ रहते हो ?
ReplyDeleteभावमयी रचना .
आभारी हूँ आदरणीया संगीता जी।
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (31-05-2021 ) को 'नेता अपने सम्मान के लिए लड़ते हैं' (चर्चा अंक 4082) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
आभार आदरणीय रवीन्द्र जी।।।।
Deleteनिशांत, हो चले वो,
ReplyDeleteपर, अशान्त मन में, अब भी पले वो,
जाने, बांधे, किन घेरों में,
खींचे, रह-रह, भूले से उन डेरों में,
भूल-भुलैय्या सी, वो,
तन्हा राहें!---बहुत खूब पंक्तियां...।
विनम्र आभार आदरणीय संदीप जी।
Deleteपुकारती, वो राहें,
ReplyDeleteशायद, कुछ आशाएं, छूटी थी पीछे,
कुछ मेरे, कल के संबल,
कुछ, भावनाओं के, सूखे कँवल,
टूटे से, कुछ सपने,
कुछ आहें!
निशांत, हो चले वो,
पर, अशान्त मन में, अब भी पले वो,
जाने, बांधे, किन घेरों में,
खींचे, रह-रह, भूले से उन डेरों में,
भूल-भुलैय्या सी, वो,
तन्हा राहें!
दिल को छू जाने वाली अत्यंत मार्मिक रचना!
विनम्र आभार आदरणीया मनीषा जी
Deleteवाह
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय सुशील जी
Deleteपुकारती, वो राहें,
ReplyDeleteशायद, कुछ आशाएं, छूटी थी पीछे,
कुछ मेरे, कल के संबल,
कुछ, भावनाओं के, सूखे कँवल,
टूटे से, कुछ सपने,
कुछ आहें!
बहुत प्रभावी, मर्मस्पर्शी रचना...
विनम्र आभार आदरणीया डा शरद जी।
Deleteमर्मस्पर्शी सृजन पुरुषोत्तम जी, राहें तो स्थिर है राही ही उन्हें तन्हा छोड़ जाते हैं पर पदछापों में आशाएं संबल कँवल सब और न जाने क्या क्या बिछा रहता है उन्हीं राहों पर ।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया कुसुम जी।
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