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Tuesday 17 March 2020

रातों की गहराई में

रातों की गहराई में!
जब ये सृष्टि सारी, ढ़ँक जाती है,
प्रयत्न करता हूँ फिर मैं भी,
खुद को ढ़ँक लेने की,
जीवन के कड़वे सच से,
मुँह मोड़ लेने की,
दिन सा मैं भी,
अंधियारों में छुप जाता हूँ,
संज्ञाहीन बन जाता हूँ,
बिछ जाती है रातों की चादर,
सत्य, जरा ढ़ँक जाता है,
पर, अन्दर, 
फूलती-चलती है साँसें, 
गहराता है सत्य,
जग उठती है, ये शुन्य मति,
टूटती है संज्ञाहीनता,
भान सा होता है,
दूर क्षितिज पे कहीं,
फूटती है रौशनी,
सत्य, भला कब सोता है,
रातों की गहराई में!

गहराते अंधियारे में!
सन्नाटों के, बढ़ते शोर-शराबे में,
सत्य, कहाँ घबराता है,
हरपल अडिग,
अनवरत संघर्षरत,
कर देता है,
अंधियारे को नतमस्तक,
खुल जाते हैं चौंधकर, 
मेरे दो पलक,
विस्मयकारी यह सत्य,
सोचता है मन,
क्या,
मुँह मोड़ लेना,
ही है
जीवन?
जलता-बुझता है क्षितिज,
आजीवन!
नित ले आती है,
नई प्रभा,
चकाचौंध आभा,
जग पड़ती है, सोई संज्ञा,
रातों की गहराई में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 28 July 2016

रातों के रतजगे

ये रातों के रतजग, सब उनके हैं दिए,
नींदे चुराकर मेरी, न जाने किधर वो चल दिए?

कुछ कहा था कभी उसने,
जगाए थे उसने, आँखों में कितने ही सपने,
उम्मीद की शाख पर, फूल लगे थे खिलने,
रौशनी लेकर आई थी, आस की चंद किरणें,
अब कहाँ हैं वो बातें, बुझ रहें है अब वो जलते दिए,

ये रातों के रतजगे, सब उनके हैं दिए,
सपने सजाकर मेरी, न जाने किधर वो चल दिए?

कह दे उनसे जाकर ए मन,
उम्मीद ना जगाए इस तरह आँखों में कोई,
टूटते हैं उम्मीद, जब टूटती हैं साँसे कोई,
आस टूटते हैं हृदय के, आवाज नहीं कोई,
चीखते है सन्नाटे, बुझ रहे हैं अब आस के दिए,

ये रातों के रतजगे, सब उनके हैं दिए,
उम्मीद जगाकर मेरी, न जाने किधर वो चल दिए?

मन की कटोरे में, गूंज है उठती,
इक आह निकलती है, बस सन्नाटों को चीरती,
गुजर रही है रात, बस आँखों को मीचती,
घुप सा अंधेरा है, साया भी साथ नहीं देती,
वियावान है हर तरफ, साथ बस वो बुझते से दिए,

ये रातों के रतजगे, सब उनके हैं दिए,
छोड़ सन्नाटे में मुझको, न जाने किधर वो चल दिए?

Monday 20 June 2016

उफ यह रात

उफ, यह डरी सहमी सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

उफ, ये रात ढलती है कितनी धीरे-धीरे,
कितने ही मर्म अपने गर्त अंधेरे साए में समेटे,
दर्द की चिंगारी में खुद ही जल-जलके,
तड़पी है यह रात अपनों से ठोकर खा-खा के,

उफ, यह बेचारी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

पड़े हैं कितने ही छाले इनके पैरों में,
दिन की चकाचौंध उजियारों मे चल-चल के,
लूटे हैं चैन अपनों नें ही इन रातों के,
सपन सलोने भी अब आते हैं बहके-बहके,

उफ, यह तन्हा सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

सुर्ख रातों की गहरी तम सी तन्हाई,
भाग्य की लकीरों सी इनकी हाथों मे गहराई,
सन्नाटों की चीरती आवाज सी लहराई,
आँखे रातों की भय, व्यथा, घबराहट से भर आई,

उफ, अंधेरी स्याह सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?