Monday, 25 April 2016

वो मेरा गाँव

वो मेरा गाँव!
अंजाना सा क्युँ लगता है अब?
बेगाने हो चले हैं सब,
अंजाना सा लगता है वो अब,
इस मन मंदिर मे ही कही,
रहता था मेरा वो रब,
बिसरे है सब, बिसरा मेरा वो रब,
बिछड़ा है मेरा मन,
कही भीड़ मे ही अब,
वो गाँव! मेरा नहीं वो अब................!

वो मेरा गाँव!
अंजानों की बस्ती है अब,
कहने को अपने पर बेगाने हैं सब,
अंजाना मेरा मन अपनों में अब,
कहता है मेरा ये मन,
चल एे दिल, कही दूर चल अब,
सपने तेरे हो जहाँ,
कोई मन का मीत तेरा हो जहाँ,
छोटी सी ही हो दुनियाँ,
पर कोई तेरा अपना तो हो वहाँ,
वो गाँव! अब मेरा है वो कहाँ................?

वो मेरा गाँव?
अब कौन दे तुझको...?.......
झिलमिल आँचल की छाँव,
ममता की मीठी सी थपकी,
और स्नेह की दुलारी सी मुस्कान,
गाँव अब वो मेरा नहीं,
वो मेरे सपनों का अब रैन बसेरा नहीं,
वहाँ इन्तजार मेरा नहीं,
वो गाँव की पीपल अब देती नही है छाँव,
एे मन! अब मेरा नही वो गाँव,
ऐ मन तू धीरज रख, अब मेरा नहीं वो गाँव......!

वो अंजान से

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

मेरे हृदय की बेमोल व्यथा कौन सुनता है यहाँ,
कितने ही अलबेले तरंग हरपल मन में पलते यहाँ,
मिथ्या सी लगती हैं सारी अनकही कहानियाँ,
कुछ इस तरह ही रही गुजरते लम्हों की मेरी दास्ताँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

साँसो की वलय कितने ही इस पल को हैं मिले,
कितने ही सपनों ने आँखों में छुपकर ही दम तोड़े,
जज्बातें हरपल पिसती रही इस मन के भीतर,
कुछ इस तरह रही जिन्दगी के लम्हों की पूरी कारवाँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

अब मैं हूँ और संग मेरे कठोर हो चुका मेरा हृदय,
अनकही कहानियाें की टूटी दीवारे बिखरी हुई हैं यहाँ,
लम्हा-लम्हा गुजरे वक्त का बिखरा सूना सा यहाँ,
कुछ इस तरह रही अनसुनी हृदय की अधूरी कहानियाँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

Sunday, 24 April 2016

निःशब्द

निःशब्द कोई क्युँ बिखरे इस धरा पर,
निष्प्राण जीवन कैसे रह पाए इस अचला पर,
बिन मीत कैसे सुर छेड़े कोई यहाँ पर,
आह! स्वर निःशब्दों के निखरते आसमाँ पर।

प्रखर हो रहे हैं अब, निःशब्द चाँदनी के स्वर,
मूक शलभ ने भी ली है फिर यौवन की अंगड़ाई,
छेड़ी है निस्तब्ध निशा ने अब गीत गजल कोई,
तारों के संग नभ पर सिन्दूरी लाली छाई।

कपकपी ये कैसी उठी, निःशब्दो के स्वर में,
आ छलके है क्यूँ नीर, निःशब्दों के इन पलकों में,
हृदय उठ रही क्यूँ पीर निःशब्दों के आलय में,
काश! कोई तो गा देता गीत निःशब्दों के जीवन में।

Thursday, 21 April 2016

मन में प्रतीक्षा के ये पल

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सुन ओ मीत मेरी,
प्रतीक्षा की उन्मादित पल के,
गीत वही फिर गाता है मन,
तेरी कल्पित मधुर प्रतीक्षा के।

गीत गाती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सिहरन बिजुरी सी,
कैसी प्रतीक्षा की इस क्षण में,
ये राग बज रहे विषम,
आस-निराश की उलझन में।

सुलगती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

प्रतीक्षा की ये घड़ियाँ,
होते मादक मिलन के पल से,
तरंग पल-पल उठते,
सिहरित आशा की आँगन में।

तरंगित होती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

ओ मेरे प्रतीक्षित मीत,
प्रतीक्षा की पल को तु कर दे विस्तृत,
धुन वही एक तेरी होती रहें तरंगित,
पलकें बिछ जाएँ बस इक तेरी आशा में।

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

प्रतीक्षारत

स्नेह मन का प्रतीक्षारत, तुम प्रतीक्षा के ये पल ले लो!

मैं सागर प्रीत का एकांत स्नेह भरा,
सिहरता पल-पल प्रतीक्षा की नेह से भरा,
प्रतीक्षा की इल पल को स्नेहित कर दो,
नेह का तुम मुझसे इक अटूट आलिंगन ले लो।

गीत मन की प्रतीक्षारत, तुम गीत मेरे मन के ले लो!

सुन ऐ मेरे मन के चिर प्रतीक्षित मीत,
कहता है कोई, प्रतीक्षा तो स्वयं भी है एक गीत,
बार बार जिसको जग कर ये मन गाता है,
तुम मेरी प्रतीक्षा का चिर स्नेहित गीत ले लो।

युगों से मन प्रतीक्षारत, तुम प्रतीक्षा के ये युग ले लो!

प्रतीक्षा इस सागर की गहराती हर पल,
गीत वही इक धुन की चिर युगों से प्रतीक्षारत,
प्रतीक्षा के गीतों मे मैं जब-जब जागा हूँ,
कहता उस पल ये मन, हृदय तुम मेरा ले लो।

जागा हूँ मैं प्रतीक्षारत, नींद के पल मेरे मुझको दे दो!

Wednesday, 20 April 2016

लहराते गेसुओं संग

गेसुओं की काली लटों मे राज गहरे छुपे हैं कितने।

खुल के लहराए है ये,
किसके गेसु उन बादलों संग,
बिखर गई है जैसे खुश्बु,
हर तरफ इन हवाओं के संग,
जाल से बिछ रहे हैं,
अब यहाँ इन गेसुओं केे,
बंध रहा हर पल ये मन,
भीनी-भीनी उन गेसुओं संग।

खुल गए हैं राज गहरे, कितने ही इन गेसुओं के।

कुछ अलग ही बात है,
लहराते घनेरे से इन गेसुओं में,
उलझी हैं ये राहें तमाम,
घुँघरुओं सी इन गेसुओं में,
लट ये काले खिल रहे हैं,
इन बादलों संग उस ओट में,
बिखरे है हिजाब गेसुओं के,
मदहोशियों सी इन धड़कनों में।

उलझे हुए सब जाल में ही, इन शबनमी गेसुओं के।

Tuesday, 19 April 2016

मानव बन सकें हम

अवधारणा ही रही यह मेरी कि मानव हैं हम,
विमुख भावनाओं से सर्वदा, क्या सच में मानव हैं हम?

कहीं तोड़ देते ये हृदय किसी का,
जाति-धर्म की संवेदनहीन सियासत में,
घृणा द्वेष दे जाते ये यहाँ  विरासत में,
स्व से उपर कहाँ उठ सके हम,
भावनाओं से परे लगे हैं, निज की स्वागत में।

विडम्बना जीवन की, कि कहलाते मानव हैं हम!
खून पी जाते हैं नरभक्षी बन, क्या सच में मानव हैं हम?

सद्भाव की सारी बातें लगती हैं तृष्णा सी,
जहर घुल चुके दिलों में सुखचैन हुए मृगतृष्णा सी,
काँटे बोए है खुद ही, काट रहे फसल घृणा की,
निज स्वार्थ से ऊपर कहाँ उठे हम,
बातें करते हैं हम विश्व और जगत कल्याण की।

प्रार्थना है मेरी ईश्वर से कि मानव तो बन सकें हम!
बीज भावना के बोएँ, जीवन के सम्मुख हो सकें हम!

अधूरे सपने

अधूरे सपने ! ये संग-संग ही चलते है जीवन के!

अधूरे ही रह जाते कुछ सपने आँखों में,
कब नींद खुली कब सपने टूटे इस जीवन में,
कब आँख लगी फिर जागे सपने नैनों में।

अधूरे सपने ! सोते जगते साथ साथ ही जीवन में!

सपनों की सीमा कहीं उस दूर क्षितिज में,
पंख लगा उड़ जाता वो कहीं उस दूर गगण में,
कब डोर सपनों की आ पाई है हाथों में।

अधूरे सपने ! पतंगों से उड़ते जीवन के नील गगन में!

पलकों के नीचे मेरी सपनों का रैन बसेरा,
बंद होती जब ये पलकें सपनों का हो नया सवेरा,
अधूरे उन सपनो संग खुश रहता है मन मेरा।

अधूरे सपने ! ये प्यार बन के पलते हैं मेरे हृदय में।

कहाँ मेरी हाला

मेरी हाला है किस मदिरालय में? ढू़ंढ़ता ये मतवाला!

मादक मद का लबालब प्याला,
ढू़ंढ़ता है नित ये मतवाला,
मदिरा पीने को रोज ही,
जाता हूँ मैं मधुशाला,
मदिरा की प्यालों में लेकिन,
मिलती कहाँ मन की हाला।

मेरी हाला है किस मदिरालय में? ढू़ंढ़ता ये मतवाला!

मदिरालय की हर प्याले को,
इन होठों से मैं छू लेता हूँ,
भर-भरकर उन प्यालों को,
घूँट-घूँट मै पी लेता हूँ,
कंठ सूखते ही रहते फिर भी,
प्यासा ही रह जाता ये पीनेवाला।

मेरी हाला है किस मदिरालय में? ढू़ंढ़ता ये मतवाला!

कितने हीे सुंदर प्याले मदिरालय में,
सबसे सुंदर है मेरी प्याला,
उस प्याले मैं तैरता है जीवन,
जी उठता है ये मतवाला,
रख छोरा है मैने किस मधुशाला में,
मैने वो सुन्दर जीवन की प्याला।

मेरी हाला है किस मदिरालय में? ढू़ंढ़ता ये मतवाला!

Monday, 18 April 2016

अब कोई इन्तजार नहीं

अब कोई इन्तजार नहीं करता वहाँ उस ओर......

बँधी थी उम्मीद की हल्की सी इक डोर,
कुछ छाँव सी महसूस होती थी गहराती धूप में भी,
मंद-मंद बयार चल जाती थी यादों की हर पल,
कानों मे अब गुंजता है सन्नाटा चीरता इक शोर....,

अब कोई इन्तजार नहीं करता वहाँ उस ओर......

हजार सपनों संग बंधी थी जीवन की डोर,
तन्हाई मादक सी लगती थी उन यादों की महफिल में,
धड़क जाता था दिल इक हल्की सी आहट में,
जेहन में अब घूमता है विराना सा अंतहीन छोर.....

अब कोई इन्तजार नहीं करता वहाँ उस ओर......

सँवरता था कभी वक्त, मदभरी बातों के संग,
सिलसिले थे शामों के तब, उन खिलखिलाहटों के संग,
मिश्री सी तरंग तैरती थी गुमशुदा हवाओं में तब,
कहीं गुमशुम वो आवाज, क्युँ है अब खामोश दौर....

अब कोई इन्तजार नहीं करता वहाँ उस ओर......