Saturday, 4 November 2017

जलता दिल

राख! सभी हो जाते हैं जलकर यहाँ,
दिल ये है कि जला...
और उठा न कहीं भी धुँआ!

है जलने में क्या?
बैरी जग हुआ दिल जला!
चित्त चिढा,
मन को छला,
दिल जला!
कहीं आग न कहीं दिया, दिल यूँ ही बस जला!

ये धुआँ?
दिल में ही घुटता रहा,
घुट-घुट दिल जला,
बैरी खुद से हुआ,
दिल को छला,
उठता कैसे फिर धुआँ, दिल के अन्दर ये घुला!

राख ही सही!
पश्चाताप की भट्ठी पर चढा,
बस इक बार ही जला,
अंतःकरण खिला......
स्वरूप बदल निखरा,
धुआँ सा गगन में उड़ा, पुनर्जन्म लेकर खिला।

Friday, 3 November 2017

स्नेह वृक्ष

बरस बीते, बीते अनगिनत पल कितने ही तेरे संग,
सदियाँ बीती, मौसम बदले........
अनदेखा सा कुछ अनवरत पाया है तुमसे,
हाँ ! ... हाँ! वो स्नेह ही है.....
बदला नही वो आज भी, बस बदला है स्नेह का रंग।

कभी चेहरे की शिकन से झलकता,
कभी नैनों की कोर से छलकता,
कभी मन की तड़प और संताप बन उभरता,
सुख में हँसी, दुख में विलाप करता,
मौसम बदले! पौध स्नेह का सदैव ही दिखा इक रंग ।

छूकर या फिर दूर ही रहकर!
अन्तर्मन के घेरे में मूक सायों सी सिमटकर,
हवाओं में इक एहसास सा बिखरकर,
साँसों मे खुश्बू सी बन कर,
स्नेह का आँचल लिए, सदा ही दिखती हो तुम संग।

अमूल्य, अनमोल है यह स्नेह तेरा,
दूँ तुझको मैं बदले में क्या? 
तेरा है सबकुछ, मेरा कुछ भी तो अब रहा ना मेरा,
इक मैं हूँ, समर्पित कण-कण तुझको,
भाव समर्पण के ना बदलेंगे, बदलते मौसम के संग।

है सौदा यह, नेह के लेन-देन का,
नेह निभाने में हो तुम माहिर,
स्नेह पात लुटा, वृक्ष विशाल बने तुम नेह का,
छाया देती है जो हरपल,
अक्षुण्ह स्नेह ये तेरा, क्या बदलेगा मौसम के संग?

Thursday, 2 November 2017

हमसफर

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

राह में गर काँटे तुमको मिले अगर,
शूल पथ में हो हजार, बिछे हों राह में पत्थर,
तुम राहों में चलना दामन मेरा थामकर,
खिल आएंगे काँटों में फूल, साथ तुम दो अगर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो राहों में गर कहीं अंधेरा घना सा,
गर कोहरों में कहीं गुम हो जाए ये रास्ता,
ये दामन भरोसे से तुम थामे रखना,
जल उठेंगे सौ दिए, इन अंधेरों को चीरकर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो कहीं, छोटा सा इक आशियाँ,
बसाएंगे वहीं अपना, हम सपनों का जहाँ,
बिछड़े ना कभी हम ऐ मेरे हमनवाँ,
आँगन में बस गूंजे खुशी, हो न गम का बसर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

Monday, 30 October 2017

हार-जीत

बयाँ कर गई मेरी बेबसी, उनसे मेरे आँखो की ये नमी!

नीर उनकी नैनों में, शब्द उनके होठों पे,
क्युँ लग रहे हैं बरबस रुके हुए?
शायद पढ़ लिया हैं उसने कहीं मेरा मन!
या मेरी आँखे बयाँ कर गई है बेबसी मेरे मन की!

घनीभूत होकर थी जमी,
युँ ही कुछ दिनों से मेरी आँखों में नमी,
सह सकी ना वेदना की वो तपिश,
गरज-बरस बयाँ कर गई, वो दबिश मेरे मन की!

ओह! मनोभाव का ये व्यापार!
संजीदगी में शायद, उनसे मैं ही रहा था हार!
संभलते रहे हँसकर वो वियोग में भी,
द्रवीभूत से ये नैन मेरे, कह गई सब मेरे मन की!

उनसे कह न पाते जो शब्द मेरे,
विस्तारपूर्वक कह गई थी उनसे मेरी नमी!
उस हार मे भी था जीत का एहसास,
विहँस रहे नैन उनके, समझ चुके वो मेरे मन की!

अब विहँसते हैं नैन उनके, समझते है वो मेरे मन की!

Saturday, 28 October 2017

कुछ कहो ना

प्रिय, कुछ कहो ना! 
यूँ चुप सी खामोश तुम रहो ना!

संतप्त हूँ, 
तुम बिन संसृति से विरक्त हूँ,
पतझड़ में पात बिन, 
मैं डाल सा रिक्त हूँ...
हूँ चकोर, 
छटा चाँदनी सी तुम बिखेरो ना,
प्रिय, कुछ कहो! यूँ चुप तो तुम रहो ना!

सो रही हो रात कोई, 
गम से सिक्त हो जब आँख कोई, 
सपनों के सबल प्रवाह बिन,
नैन नींद से रिक्त हो...
आवेग धड़कनों के मेरी सुनो ना,
मन टटोल कर तुम, 
संतप्त मन में ख्वाब मीठे भरो ना,
प्रिय, कुछ कहो! यूँ चुप तो तुम रहो ना!

चुप हो तुम यूँ!
जैसे चुप हो सावन में कोई घटा,
गुम हो कूक कोयल की,
विरानियों में घुल गई हो कोई सदा,
खामोश सी इक गूँज है अब,
संवाद को शब्द दो,
लब पे शिकवे-गिले कुछ तो भरो ना,
प्रिय, कुछ कहो! यूँ चुप तो तुम रहो ना!

क्यूँ नाराज हो?
क्यूँ गुमसुम सी बैठी उदास हो?
भूल मुझसे हुई गर,
बेशक सजा तू मुझ पे तय कर,
संताप दो न,
तुम यूँ चुपचाप रहकर ...
मन की खलिश ही सही, कह भी दो ना,
प्रिय, कुछ तो कहो! यूँ चुप तो तुम रहो ना!

प्रिय, कुछ कहो ना! 
यूँ चुप सी खामोश तुम रहो ना!

Tuesday, 24 October 2017

घट पीयूष

घट पीयूष मिल जाता, गर तेरे पनघट पर मै जाता!

अंजुरी भर-भर छक कर मै पी लेता,
दो चार घड़ी क्या,मैं सदियों पल भर में जी लेता,
क्यूँ कर मैं उस सागर तट जाता?
गर पीयूष घट मेरी ही हाथों में होता!
लहरों के पीछे क्यूँ जीवन मैं अपना खोता?

लेकिन था सच से मैं अंजान, मैं कितना था नादान!

हृदय सागर के उकेर आया मैं,
उत्कीर्ण कर गया लकीर पत्थर के सीने पर,
बस दो घूँट पीयूष पाने को,
मन की अतृप्त क्षुधा मिटाने को,
भटका रहा मैं इस अवनी से उस अंबर तक!

अब आया मैं तेरे पनघट, पाने को थोड़ी सी राहत!

झर-झर नैनों से बहते ये निर्झर,
कहते हैं ये कुछ मेरी पलकों को छू-छूकर,
है तेरा घट पीयूष का सागर,
तर जाऊँ मैं इस पीयूष को पाकर,
जी लूँ मैं इक जीवन, संग तेरे इस पनघट पर!

घट पीयूष का भर लूँ मैं, पावन सा तेरे पनघट पर!

Thursday, 19 October 2017

बेखबर

काश! मिल पाता मुझे मेरी ही तमन्नाओं का शहर!

चल पड़े थे कदम उन हसरतों के डगर,
बस फासले थे जहाँ, न थी मंजिल की खबर,
गुम अंधेरों में कहीं, था वो चाहतों का सफर,
बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर!

बरबस खींचती रहीं जिन्दगी मुझे कहीं,
हाथ बस दो पल मिले, दिल कभी मिले नहीं,
शख्स कई मिले, पर वो बंदगी मिली नही,
बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर!

साहिल था सामने, बस पावों में थे भँवर,
बहती हुई इस धार में, बहते रहे हम बेखबर,
बांध टूटते रहे, टूटता रहा मेरा सबर,
बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर!

हसरतें तमाम यूँ ही लेती रही अंगड़ाई,
कट गए उम्र तमाम, साथ आई है ये तन्हाई,
तन्हा है चाहत मेरी, तन्हा है अब ये सफर,
बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर!

काश! मिल पाता मुझे मेरी ही तमन्नाओं का शहर!

Sunday, 15 October 2017

नेपथ्य

मौन के इस गर्भ में, है सत्य को तराशता नेपथ्य।

जब मौन हो ये मंच, तो बोलता है नेपथ्य,
यूँ टूटती है खामोशी, ज्यूँ खुल रहा हो रहस्य,
गूँजती है इक आवाज, हुंकारता है सत्य,
मौन के इस गर्भ में, है सत्य को तराशता नेपथ्य।

पार क्षितिज के कहीं, प्रबल हो रहा नेपथ्य,
नजर के सामने नहीं, पर यहीं खड़ा है नेपथ्य,
गर्जनाओं के संग, वर्जनाओं में रहा नेपथ्य,
क्षितिज के मौन से, आतुर है कहने को अकथ्य।

जब सत्य हो पराश्त, असत्य की हो विजय,
चूर हो जब आकांक्षाएँ, सत्यकर्म की हो पराजय,
लड़ने को असत्य से, पुनः आएगा ये नेपथ्य,
अंततः जीतेगा सत्य ही, अजेय है सदा नेपथ्य।

मौन के इस गर्भ में, है सत्य को तराशता नेपथ्य।

Thursday, 5 October 2017

शरद हंसिनी

नील नभ पर वियावान में,
है भटक रही.....
क्यूँ एकाकिनी सी वो शरद हंसिनी?

व्योम के वियावान में,
स्वप्नसुंदरी सी शरद हंसिनी,
संसृति के कण-कण में,
दे रही इक मृदु स्पंदन,
हैं चुप से ये हृदय,
साँसों में संसृति के स्तब्ध समीरण,
फिर क्युँ है वो निःस्तब्ध सी, ये कैसा है एकाकीपन!

यह जानता हूँ मैं...
क्षणिक तुम्हारा है यह स्वप्न स्नेह,
बिसारोगे फिर तुम मुझे,
भूल जाओगे तुम निभाना नेह,
टिमटिमाते से रह जाएंगे,
नभ पर बस ये असंख्य तारे,
एकाकी से गगन झांकते रह जाएंगे हम बेचारे!

व्योम के वियावान में,
शायद इसीलिए...!
भटक रही एकाकी सी वो शरद हंसिनी!

Wednesday, 4 October 2017

कोलाहल

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
काँप उठी ये वसुन्धरा,
उठी है सागर में लहरें हजार,
चूर-चूर से हुए हैं, गगनचुम्बी पर्वत के अहंकार,
दुर्बल सा ये मानव,
कर जोरे, रचयिता का कर रहा मौन पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
कोलाहल के है ये स्वर,
कण से कण अब रहे बिछर,
स्रष्टा ने तोड़ी खामोशी, टूट पड़े हैं मौन के ज्वर,
त्राहिमाम करते ये मानव,
तज अहंकार, ईश्वर का अब कर रहे पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?
या है छलनी उस रचयिता का हृदय!
या पाप की अस्त का, फिर से हुआ है उदय!
या है यह मानव का ही स्व-पराजय!
विजय तलाशते ये मानव,
हो पराश्त, नतमस्तक स्रष्टा को रहे पुकार!

क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?