शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!
एकत्र हुई है सब कलियाँ,
चटक रंगों से करती रंगरलियाँ,
डाल-डाल खिल आई नव-कोपल,
खिलते फूलों के चेहरे हैं चंचल,
सब पात-पात झूमे हैं,
कलियों के चेहरे भँवरों ने चूमे हैं,
लताओं के लट यूँ बिखरे हैं,
ज्यूँ नार-नवेली ने लट खोले हैं,
रंगीन धरा, अंग-अंग में श्रृंगार भरा...
चटक रंगों से करती रंगरलियाँ,
डाल-डाल खिल आई नव-कोपल,
खिलते फूलों के चेहरे हैं चंचल,
सब पात-पात झूमे हैं,
कलियों के चेहरे भँवरों ने चूमे हैं,
लताओं के लट यूँ बिखरे हैं,
ज्यूँ नार-नवेली ने लट खोले हैं,
रंगीन धरा, अंग-अंग में श्रृंगार भरा...
शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!
झूम-झूम हो रही मतवाली,
गुलमोहर, अमलतास की डाली,
खुश्बू भर आई गुलाब, चम्पा और बेली,
गीत बसंत के कूक रही वो कोयल,
पपीहा अपनी धुन में पागल,
रह रह गाती बस ..पी कहाँ, पी कहाँ!
मुग्ध संसृति है इनकी तान से,
सृजन का है सुन्दर नव-विहान ये,
मुखरित धरा, कण-कण में लाड़ भरा...
गुलमोहर, अमलतास की डाली,
खुश्बू भर आई गुलाब, चम्पा और बेली,
गीत बसंत के कूक रही वो कोयल,
पपीहा अपनी धुन में पागल,
रह रह गाती बस ..पी कहाँ, पी कहाँ!
मुग्ध संसृति है इनकी तान से,
सृजन का है सुन्दर नव-विहान ये,
मुखरित धरा, कण-कण में लाड़ भरा...
शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!
हैं दलदल में खिले कमल,
जल में बिखरे हैं शतधा शतदल,
कलरव क्रीड़ा करते झूम रहे है जलचर,
जैसे मना रहे उत्सव सब मिलकर,
झिलमिल करती वो किरणें,
ठहरी झील की चंचल सतह पर,
थिरक रही बूँद-बूँद बस इठलाकर,
मुग्ध धरा, अंग-प्रत्यंग में उन्माद भरा......
जल में बिखरे हैं शतधा शतदल,
कलरव क्रीड़ा करते झूम रहे है जलचर,
जैसे मना रहे उत्सव सब मिलकर,
झिलमिल करती वो किरणें,
ठहरी झील की चंचल सतह पर,
थिरक रही बूँद-बूँद बस इठलाकर,
मुग्ध धरा, अंग-प्रत्यंग में उन्माद भरा......
शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!