Sunday, 1 September 2019

सुधि के क्षण

जाने कब, ढ़ह जाए ये तन,
अंगारों मे कब, दह जाए ये जीवन,
शीतल सी ओ मंद पवन,
बस दो पल को ही,
ले आ, सुधि के वो ही क्षण!

जीवन से दूर, कहीं चला था जीवन,
तोड़ कर तटबंध, कहीं बहा ये प्रतिक्षण,
आशा के बंध, उम्मीदों के तटबंध,
पल भर में टूटे थे, मन के सारे कटिबंध,
बिखर चुकी थी, अल्हड़ सी तरुणाई,
सूख चुकी थी, गंधभरी ये अमराई,
आश्वस्ति, दे गई थी पुरवाई!

शांत चित्त हुआ था, विचलित मन,
पर मंजूर न थे, किस्मत को वो भी क्षण,
बींध रहे थे, तन को तेज किरण,
जाने कब मुरझाते, बागों की अमराई,
सिमट चुकी थी, पेड़ों की परछाईं,
उम्मीदों के ढ़ेह, तभी थी आई,
सुधि-क्षण, लाई थी पुरवाई!

जाने कब, ढ़ह जाए आशा,
कब जीवन में, समा जाए निराशा,
चंचल ढ़ेह सी बह तू पवन,
बस दो पल को ही,
ले आ, सुधि के वो ही क्षण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 29 August 2019

धुंधली शाम

हो फिर वही, डूबती धुंधली सी शाम!

हो बिखरी हुई, बेकरारियाँ,
हो सिमटी हुए, दामन में घड़ियाँ,
हों बहके हुुुए, सारे लम्हे यहाँ,
चलते रहे, हाथों को थाम!

हो फिर वही, डूबती धुंधली सी शाम!

हो, हल्की सी कहीं रौशनी,
सुरमई गीत, गा रही हो चाँदनी,
हल्की सी हो, फ़िजा जामुनी,
छलके हों, हल्के से जाम!

हो फिर वही, डूबती धुंधली सी शाम!

धुंधली सी हो, हजारों बातें,
हो बस वही, सितारों सी आँखें,
मंंद ना हो, ये रौशन सौगातें,
खोए रहे, उम्र ये तमाम!

हो फिर वही, डूबती धुंधली सी शाम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 28 August 2019

तपिश

रह गई है, अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

बेमेल से हैं, विचारों के मेले,
धर्म के, अनर्थक झमेले,
रक्तिम होते, ये अन्तहीन उन्माद,
थमते नहीं, झूठ के विवाद!
गुजारी हैैं सदियाँ,
इन विवादों के दरमियाँ,
रक्तरंजित होते, देखी हैं गलियााँ,
धर्म की आड़ में,
कट गए कितने ही गले,
विसंगति धर्म की,
लेकिन, कहाँ इतनी रक्त से धुले?
आज भी है बाकि,
इसमें, अधूरी प्यास खून की!

सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

लाशों के ढ़ेर पर, हैं हम खड़े,
धर्म के नाम, हैं हम लड़े,
है कुछ ठेकेदारों की ये साझेदारी,
अक्ल हमारी गई है मारी,
हैं बस वो ही प्यारे!
रक्त पीते हैं जो हमारे,
उनकी राजनीति, के ये खेेेल सारे
चलते हैं लाश से,
जिंदगानियों की सांस से,
साजिशें धर्म की,
लेकिन, हम कहाँ समझ सके!
है उनकी बातों में,
सड़ान्ध, गलते हुए लाशों की!

सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

खून के घूँट, यूँ पी लेता हूँ मैं,
जीने को, तो जीता हूँ मैं,
तर्कों-कुतर्कों, से होकर असहज,
करते हुए खुद को सहज,
उम्मीदों के सहारे!
सदियों, हैं हमने गुजारे,
काश! मिट जाते ऐसे धर्म सारे,
बांटते हैं जो दिलों को,
दिग्भ्रमित करते हैं हमको!
मानव धर्म की,
हम महज कल्पना ही कर सके!
नींद में ही देखे,
सपने! समरस समाज की!

सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 26 August 2019

चेतना

निष्काम, स्वभाव धरें हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!

स्वत्व की साधना, करते-करते,
निकल पड़े हैं, हम सब किस रस्ते?
विकल्प, खत्म हुए हैं सारे,
जग जीते, पर हैं मन के ही हारे,
मन को जीत, जरा ले हम!

बन जाएँ, जीवों में श्रेष्ठतम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!

जब चलते-चलते, कर्म पथ पर,
निज स्वार्थ, होते हैं हावी निर्णय पर,
भूल कर, तब संकल्प सारे,
कदम, भटक जाते हैं गन्तव्यों से,
हावी हम पर, होते हैं अहम!

कहीं, निष्ठा छोड़ न दे हम!
चल जरा फहराएँ, चेतना के परचम!

निःस्वार्थ करें, कुछ कार्य हम,
चल जगाएँ चेतना, जलाएँ दीप हम,
दूर हों तम, हवस ये सारे,
मानवता जीते, हारे ये अंधियारे,
हावी ना हो, हम पे ये अहम!

डिगे ना, कर्तव्य से कदम!
चल मिल फहराएँ, चेतना के परचम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 24 August 2019

धुंध

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दबी सी आहटों में, आपका आना,
फिर यूँ, कहीं खो जाना,
इक शमाँ बन, रात का मुस्कुराना,
पिघलते मोम सा, गुम कहीं हो जाना,
भर-भरा कर, बुझी राख सा,
आगोश में कहीं,
बिखर जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

अक्श बन कर, आईने में ढ़लना,
रूप यूँ, पल में बदलना,
पलकों तले, इक धुंध सा छाना,
टपक कर बूँद सा, आँखों में आना,
टिम-टिमा कर, सितारों सा,
निगाहों में कहीं,
विलुप्त होना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दिवा-स्वप्न सा, हर रोज छलना,
संग यूँ, कुछ दूर चलना,
उन्हीं राह में, कहीं बिछड़ना,
विरह के गीत में, यूँ ही ढ़ल जाना,
निकल कर, उस रेत सा,
इन हाथों से कहीं,
फिसल जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 23 August 2019

अनुगामिनी

मन की देहरी पर, रोज मिलते हो तुम!

खुश्बू सी हवाओं में, घुलते हो तुम,
इक फूल सा, खिलते हो तुम,
देखता हूँ बस तुम्हें, जागने से पहले,
दिन ढ़ले, महसूस होते हो तुम,
हो इक रौशनी या हो खिली चाँदनी,
रंग हो या हो कोई रागिनी,
या जन्मों की हो, तुम अनुगामिनी!
महज ये इक, ख्याल तो नहीं!

मन की देहरी पर, रोज मिलते हो तुम!

हर घड़ी एक दस्तक, देते हो तुम,
मेरी तन्हाईयों में, होते हो तुम,
अनथक सी बातें, सवालों से पहले,
फिर शिकायतें, करते हो तुम,
हो इक यामिनी या दमकती दामिनी,
रूप हो या हो कोई कामिनी,
या जन्मों की हो, तुम अनुगामिनी!
महज ये इक, ख्याल तो नहीं!

मन की देहरी पर, रोज मिलते हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 20 August 2019

चंद बातें

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चुप हो तुम, तो चुप है जहां!
फैली है जो खामोशियाँ!
पसरती क्यूँ रहे?
इक गूंज बनकर, क्यूँ न ढले?
चहक कर, हम इसे कह क्यूँ न दें?
चल पिरो दें गीत में इनको!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

तू खोल दे लब, कर दे बयां!
दबी हैं जो चिंगारियाँ!
सुलगती, क्यूँ रहें?
इक आग बनकर, क्यूँ जले?
इक आह ठंढ़ी, इसे हम क्यूँ न दें?
बंद होठों पर, इसे रख दे!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चंद बातों से, जला ले शमां!
पसरी है जो विरानियाँ!
डसती क्यूँ रहे?
विरह की सांझ सी, क्यूँ ढले?
मंद सी रौशनी, इसे हम क्यूँ न दें?
चल हाथ में, हम हाथ लें!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 18 August 2019

लकीरें

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

बंध गई होगी, पांव में जंजीर कोई,
चुभ गए होंगे, शब्द बन कर तीर कोई,
या उठ गई होगी, दबी सी पीड़ कोई,
खुद ही, कब बनी है लकीर कोई,
या भर गया है, विष ही फिज़ाओं में कोई!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

फसे होंगे, सियासत की जाल में,
घिरे होंगे, अज्ञानता के अंधेरे ताल में,
मिटे होंगे, दुष्ट दुश्मनों की चाल में,
या लुटे होंगे, बेवशी के हाल में,
या भटक चुके होंगे, वो इन दिशाओं में!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

मन बंटे होंगे, चली होंगी आंधियाँ,
तन जले होंगे और चली होंगी लाठियां,
घर जले होंगे, या चली होंगी गोलियाँ,
उजाड़े गए होंगे, यहाँ के आशियां,
या घुल गए होंगे, जहर हवाओं में यहाँ!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 16 August 2019

उजली किरण

कोई उजली किरण, कभी तो छू लेगी बदन! 

फिर ना छलेगी, हमें ये अंधेरी सी रात,
चलेगी संग मेरे जब, कभी ये तारों की बारात,
अंधियारों में फूटेगी, आशा की इक लौ,
मन प्रांगण, जगमगाएंगे दिये सौ,
रौशन होगी, अन्तःकिरण!

कोई उजली किरण, कभी तो छू लेगी बदन! 

जागेगा प्रभात, डूबेगी ये घनेरी रात,
चढ़ किरणों के रथ, चहकती आएगी प्रभात,
टूटेंगे दुःस्वप्न, अरमानों के सेज सजेंगे,
अंधेरे मन में, अन्तःज्योत जलेंगे, 
जगाएगी, इक रश्मि-किरण !

कोई उजली किरण, कभी तो छू लेगी बदन! 

पल में ढ़लेगी, फिर न छलेगी रात,
बात सुहानी कोई कहानी, मुझसे कहेगी रात,
रैन सजेंगे, खोकर स्वप्न में नैन जगेंगें,
अंधियारों से, यूँ इक स्वप्न छीनेंगे,
मिलेगी स्वप्निल, प्रभाकिरण !

कोई उजली किरण, कभी तो छू लेगी बदन! 

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 15 August 2019

विश्व विजयी तिरंगा

चलो न हम रंगें, ये जमीं, ये विश्व, ये आकाश,
अनूठे से, ये तीन रंग, हैं हमारे पास!

पर्वतों के शीष पर, हैं बिखेरे हमने रंग,
ये पहाड़ दुग्ध से, सदा ही हँसे हैं हमारे संग,
सन गए ये कभी, आतंक के खून संग,
खामोश से हुए, दुग्ध के आकाश!
चलो न हम रंगें, इस तिरंगे सा, ये पर्वताकाश!

रंग ये केसरी सा, बह रहा लहू के संग,
रंग जाएगी सरज़मीं, गर कट गए ये मेरे अंग,
मुल्क के ही वास्ते, बह रहा मेरा ये रंग,
केसरी सा ये रंग, है रंगों में खास!
चलो न हम रंगें, ये जमीं, ये नभ, ये आकाश!

पथरीली राह पर, है बिछा हरा सा रंग,
हँस रही ये सरजमीं, इन हरे-हरे रंगों के संग,
खिल उठे हैं खेत, उत्सवों के हैं उमंग,
हरा सा ये रंग, भर गया उल्लास!
क्यूं न हम रंगें, ये जमीं, ये विश्व, ये आकाश?

शान्ति का प्रतीक, है बना धवल ये रंग,
विश्व-शान्ति का संदेश, दे रहा धवल ये रंग,
क्लेश से परे, उज्जवल, धवल ये रंग,
उजाले यही, सदा ही होते काश!
फिर क्यूं न हम रंगें, इस विश्व का आकाश?

चलो न हम रंगें, ये जमीं, ये नभ, ये आकाश,
अनूठे से, ये तीन रंग, हैं हमारे पास!

                     - पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा