Wednesday 2 October 2019

निस्पंद मन भ्रमर

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

व्यथा के अनुक्षण, लाख बाहों में कसे,
विरह के कालाक्रमण, नाग बन कर डसे,
हर क्षण संताप दे, हर क्षण तुझ पर हँसे,
भटकने न देना, तुम मन की दिशाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

तिरने न देना, इक बूँद भी नैनों से जल,
या प्रलय हो, या हो हृदय दु:ख से विकल,
दुविधाओं के मध्य, या नैन तेरे हो सजल,
भीगोने ना देना, इन्हें मन की ऋचाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

गर ये नैन निर्झर, अनवरत बहती रही,
गर पिघलती रही, यूं ही सदा ये हिमगिरी,
गलकर हिमशिखर, स्खलित होती रही,
कौन वाचेगा यहाँ, वेदों की ऋचाएँ?

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

ध्यान रखना, ऐ पंखुडी की भित्तियाँ,
निस्पंद मन भ्रमर, अभी जीवित है यहाँ,
ये काल-चक्र, डूबोने आएंगी पीढियाँ,
साँसें साधकर, वाचना तुम ॠचाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 29 September 2019

गुजरता वक्त

वक्त है गतिमान, रिक्त है वर्तमान,
वक्त से विलग, बस बचा है ये वियावान,
और है बची, इक मृग-मरीचिका,
सुनसान सा, कोई रेगिस्तान!

रिक्त से हैं लम्हे, सिक्त हैं एहसास,
गुजरता वक्त, छोड़ गया है कुछ मेरे पास!
अंदर जागी है, इक अकुलाहट सी,
जैसे कुछ थम सी गई है साँस!

वो समृद्ध अतीत, ये रिक्त वर्तमान,
खाली से हाथ, पल-पल टूटता अभिमान,
दूर से चिढ़ाता हुआ, वो ही आईना,
था कल तक, जिस पर गुमान!

जाने लगी है दूर, मरुवृक्ष की छाया,
कांति-विहीन, दुर्बल, होने लगी है काया,
सिमटने लगी हैं, धुंधली सी सांझ,
न ही काम आया, ये सरमाया!

सब लगता है, कितना असहज सा,
जैसे अपना ही कुछ, हो चुका पराया सा,
कैद हों चुकी हैं, जैसे कुछ तस्वीरें,
यादों में है बसा, चुनवाया सा!

है असलियत, गुजर जाता है वक्त,
तकती हैं ये हताश आँखें, होकर हतप्रभ,
तलाशती है "क्या कमी है मुझमें",
ढ़ूँढ़ती है, बीता सा वही वक्त!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 26 September 2019

हुंकार

गूंज उठी थी ह्यूस्टन, थी अद्भुत सी गर्जन!
चुप-चुप सा, हतप्रभ था नेपथ्य!
क्षितिज के उस पार, विश्व के मंच पर, 
देश ने भरी थी, इक हुंकार?

सुनी थी मैंने, संस्कृति की धड़कनें,
जाना था मैंने, फड़कती है देश की भुजाएं,
गूँजी थी, हमारी इक गूंज से दिशाएँ,
एक व्यग्रता, ले रही थी सांसें!

फाख्ता थे, थर्राए दुश्मनों के होश,
इक भूचाल सा था, फूटा था मन का रोश,
संग ले रहा था, एक प्रण जन-जन,
विनाश करें हम, विश्व आतंक!

आतंक मुक्त हों, विश्व के फलक,
जागे मानवता, आत॔कियों के अन्तः तक,
लक्ष्य था एक, संग हों हम नभ तक,
संकल्प यही, पला अंत तक!

चाह यही, समुन्नत हों प्रगति पथ,
गतिमान रहे, विश्व जन-कल्याण के रथ,
अवसर हों, हाथों में हो इक मशाल,
रंग हो, नभ पे बिखरे गुलाल!

महा-शक्ति था, जैसे नत-मस्तक,
पहचानी थी उसने, नव-भारत की ताकत,
जाना, क्यूँ अग्रणी है विश्व में भारत!
आँखों से भाव, हुए थे व्यक्त!

गूंजी थी ह्यूस्टन, जागे थे सपने,
फलक पर अब, संस्कृति लगी थी उतरने,
हैरान था विश्व, हतप्रभ था नेपथ्य!
निरख कर, भारत का वैभव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 22 September 2019

मकर जाल

उम्र गुजरी, प्रश्नों के इक मकर जाल में,
उस पार उतरा, था मैं जरा सा,
अंतिम साँसें, गिन रही थी प्रश्न कई,
सो रही थी, मन की जिज्ञासा खोई हुई,
कुछ प्रश्न चुभते मिले, शूल जैसे,
जगा गई थी, मेरी जिज्ञासा!

उभरते हैं प्रश्न कई, मकर जाल बनकर!
जन्म लेती है, इक नई जिज्ञासा,
नमीं को सोख कर, जमीं को बींध कर,
जैसे फूटता हो बीज कोई, अंकुर बनकर,
प्रश्न नया, उभरता है एक फिर से,
जागती है, इक नई जिज्ञासा!

उलझी प्रश्न में, सुलझी कहाँ ये जिंदगी!
बना इक सवाल, ये ही बड़ा सा,
हर प्रश्न के मतलब हैं दो, उत्तर भी दो,
खुद राह कोई, मुड़ कर कहीं गया है खो,
तो करता कोई क्यूँ, फिर प्रश्न ऐसे,
है जाल में, उलझी जिज्ञासा!

उलझाए हैं ये प्रश्न, मकर जाल बनकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 21 September 2019

सूक्ष्म कुहासा

तृप्त भला क्या कर सकेगी, सूक्ष्म कुहासा?
तरसते चितवनों को, जरा सा!

फिर भी, बांध लेती है तरसते चितवनों को,
एक आशा दे ही देती है, उजड़े मनों को,
पिरोकर विश्वास को, जरा सा!
तरसते चितवनों को, 
सींच जाती है, सूक्ष्म कुहासा!

जगाकर आस, निरन्तर करती लघु प्रयास,
आच्छादित कर ही लेती है, उपवनों को,
भिगोकर वसुंधरा को, जरा सा! 
विचलित चितवनों को, 
त्राण जाती है, सूक्ष्म कुहासा!

टपकती है रात भर, धुन यही मन में लिए,
जगा पाऊँगी मैं कैसे, सोए उम्मीदों को,
जगाकर जज़्बातों को, जरा सा!
मृतपाय चितवनों को, 
जगा जाती है, सूक्ष्म कुहासा!

तृप्त भला क्या कर सकेगी, सूक्ष्म कुहासा?
तरसते चितवनों को, जरा सा!

              - पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 19 September 2019

भावुक था मैं?

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

क्यूँ भावनाओं में बहता था मैं!
क्या बेवजह, यूँ बहका-बहका था मैं!
गम औरों के, चुभते थे मुझको,
गैरों के दु:ख में, दुखता था दिल मेरा,
गैरों के टूटे सपनों के टुकड़े,
चुभते थे, आकर मेरी आँखों में,
दे जाती थी, पल-पल यातना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

अन्तहीन, अन्तःपीड़ा के ये घेरे!
व्यथित करते थे, मुझको शाम-सवेरे!
कोई अर्थ समेटे, बेसुध ही लेटे,
उलझी सी आँखें, निरुत्तर सी पलकें,
जैसे, बुत सुन्दर सी कोई,
व्यथित मन के, हाथों थी खोई,
देती थी, पल-पल उलाहना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

रातें थी वो, या उजाले दिन के!
सौगातें थी वो, या थे मन के मनके!
फेरता था मन, रातों में जिनको,
छुपा रखता था, उजाले में दिन के,
निज मन को, निचोड़ कर,
अन्तःज्योत को, कहीं छोडकर,
पहनाती थी, दुख का गहना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

भावना-विहीन, जीवन हो कैसे?
मन तंत्रिकाएँ, संज्ञा-विहीन हो कैसे?
जाऊँ चेतनाओं, से परे कहाँ,
चेतना-शून्य, हो मन कैसे यहाँ?
मूँद लूँ, ये आँखें मैं कैसे,
रोक दूँ, झंकृत स्वर को मैं कैसे?
चाहती थी, मूक वधिर रखना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 10 September 2019

हवाएँ

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

आए कौन सी दिशा से?
जाए कौन दिशा?
तप्त सुलगते, तन को सहलाकर,
झुलसते, मन को बहलाकर,
देकर क्षणिक दिलासा, कोरा सा ढ़ाढ़स!
क्षण भर को देकर राहत,
दूजे ही क्षण, कर दे ये आहत,
बहलाए, मन भटकाए,
जाने, कौन दिशा ले जाए?

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

रुख इनके, मोड़ दूँ कैसे?
बंध तोड़ दूँ कैसे?
भीनी सी खुश्बू, साँसों में भर कर,
चल देती है, मन को हर कर 
चैन जरा सा देकर, कर जाती है बेवश!
जगा कर, सोई सी चाहत,
देकर, अन्जानी की अकुलाहट,
सताए, मुँह मोड़ जाए,
अन्जान, दिशा चली जाए?

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

ऐ पंछी, जा कह उनसे!
लौट कर आए वो!
जाए ना फिर, यूँ मेरा चित्त लेकर,
यूँ क्षणिक, दिलासा देकर,
बूँद-बूँद को प्यासी, है ये ऋतु पावस!
ना दे, कोरा सा ढ़ाढ़स,
ठहर जरा, दे दे मन को राहत,
फिर चाहे इठलाए,
लेकिन, ठहर यहीं वो जाए!

पर देखे ना, मुड़कर ये हवाएँ!

                - पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 8 September 2019

मेरी रचना

समर्पित थी, कुछ रचनाएँ रंगमंच पर!
नव-कल्पना के, चित्र-मंच पर!
चाहत थी, पंख लेकर उड़ जाना!
नाप जाना, उन ऊंचाईयों को!
कल्पनाओं के परे, रहीं अब तक जो,
करती दृढ़-संकल्प और विवेचना!
निकल पड़ी थी, ढ़ेरों रचना!

लगता था उन्हें, क्या कर लेगी रचना?
अभी, ये सीख रही है चलना!
आसान है, इन्हें पथ से भटकाना!
नवजात शिशु सी मूक है जो!
बस किलकारी ही भर सकती है वो!
करना है क्या, इनसे कोई मंत्रणा?
छल से आहत, हुई ये रचना?

भूले थे वो, कि सशक्त व प्रखर हैं ये!
कह देती हैं ये, सब बिन बोले,
है मुश्किल, इन्हें पथ से भटकाना!
उतरती हैं, ये चल कर दिल में,
खामोश कहाँ रहती हैं, ये महफिल में,
शब्द-शब्द इनकी, करती है गर्जना,
जब हुंकार, भरती हैं रचना!

रहीं है मानवता, रचनाओं के वश में,
घर कर जाती हैं, ये अन्तर्मन में,
मन की राह, चाहती हैं ये रह जाना!
अनवरत प्रवाह, बन बह जाना,
छलक कर नैनों में, भावों में उपलाना,
सह कर, प्रसव की असह्य वेदना,
पुनः जन्म, ले लेती है रचना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 7 September 2019

ठहरे क्षणों में

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

व्यस्त से क्षणों में, तमाम उलझनों में,
मुझको, भूल तो जाओगे तुम,
और कहीं, विलीन हो जाएंगे हम,
यादों के, इन मिटते घनों में,
उभर आएं, कभी गर टीस बनकर हम,
उकेरना फिर, तुम उन बादलों को,
मुड़ कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

भूले-बिसरे क्षणों में, झांकता है कौन?
फुर्सत किसे है, ताकता है कौन?
सोच पर गिर जाते हैं, भरम के पर्दे!
पर मांगता हूँ, मैं वो ही यादें,
ठहर जाएँ, कहीं गर संवाद बन के हम,
कुरेदना फिर, तुम उन्हीं क्षणों को,
ठहर कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

ठहरे क्षणों में, मैं रुका हूँ उन्ही वनों में,
गुम हैं जहाँ, जीवंत से कहकहे,
पर संग है मेरे, लम्हे कई बिखरे हुए,
लट घटाओं के, सँवरे हुए,
बरस जाएँ, कभी ये घटाएँ बूँदें बनकर,
घेर ले कभी, तुम्हें सदाएं बनकर,
भीग कर, पुकार लेना,
तार संवेदनाओं के, जरा सा जोड़ कर!

मिल जाऊँगा मैं, सफर के उसी मोड़ पर,
जिन्दगी के, उस दूसरे से छोड़ पर,
देखना तुम मुझे, बस राह थोड़ी मोड़ कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 4 September 2019

कहीं न कहीं

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
जिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

कोई कल्पना, पूरा न था उनका मेरे बिन!
सारे सपने, अधूरे थे उनके मेरे बिन!
मेरी यादों से, उसने रंगे थे जीवन के पन्ने,
श्रृंगार उसने किए थे, आँखों से मेरी,
दूर थे हम, उस कल्पना में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खामोश थे लब, अधूरी थी बातें मेरे बिन!
अधजगी, उनींदी थी रातें मेरे बिन!
किसी काम के, न थे आसमाँ के सितारे,
हजारों थे वो, मगर न थे मुझसे प्यारे,
दूर थे हम, उनकी जेहन में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खनकती न थी, उनकी चूड़ियाँ मेरे बिन!
उजरी सी थी, वो ही दुनियाँ मेरे बिन!
चुप सी थी, उनके पायलों की रुन-झुन,
गुम-सुम से थे, उन होठों के तरन्नुम,
दूर थे हम, उन चुप्पियों में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
फिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा