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Sunday, 14 January 2024

कुहासे

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द हुई हवा,
हर ओर, जम रही ये दिशा,
चल रही, सर्द लहर,
जर्द ये कुहासे!

सफर, अब राहतों का,
तू थम जरा,
पल भर को, तू जम जरा,
ले आया, नव-विहान,
जर्द ये कुहासे!

जम चुका, ये आंगना,
ज्यूं भर रहा,
नव-संकल्प, नव-कल्पना,
रुख ही, वे बदल गईं,
जर्द से कुहासे!

लक्ष्य है, जरा धूमिल,
धूंध है भरा,
बस खुद पर, रख यकीन,
कुछ असर दिखाएगी,
जर्द ये कुहासे!

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द अब हवा,
सर्द हो चली, गर्म वो दिशा,
नव प्रवाह, भर गई, 
जर्द ये कुहासे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 21 September 2019

सूक्ष्म कुहासा

तृप्त भला क्या कर सकेगी, सूक्ष्म कुहासा?
तरसते चितवनों को, जरा सा!

फिर भी, बांध लेती है तरसते चितवनों को,
एक आशा दे ही देती है, उजड़े मनों को,
पिरोकर विश्वास को, जरा सा!
तरसते चितवनों को, 
सींच जाती है, सूक्ष्म कुहासा!

जगाकर आस, निरन्तर करती लघु प्रयास,
आच्छादित कर ही लेती है, उपवनों को,
भिगोकर वसुंधरा को, जरा सा! 
विचलित चितवनों को, 
त्राण जाती है, सूक्ष्म कुहासा!

टपकती है रात भर, धुन यही मन में लिए,
जगा पाऊँगी मैं कैसे, सोए उम्मीदों को,
जगाकर जज़्बातों को, जरा सा!
मृतपाय चितवनों को, 
जगा जाती है, सूक्ष्म कुहासा!

तृप्त भला क्या कर सकेगी, सूक्ष्म कुहासा?
तरसते चितवनों को, जरा सा!

              - पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा