ओ
बेजार से रंग,
छलक
जाओ!
बड़े
बेरंग हैं,
कई दामन,
बड़े
बदरंग हैं
कई
आँचल,
जाओ,
रंग उनमें,
जरा
भर आओ!
हो
उदासीन बड़े!
क्यूँ हो?
तुम,
दूर खड़े,
तुम तो,
खुद
बिसरे
कि
तुम
हो रंग
बड़े,
कर दो
दंग,
जरा
बिखर जाओ,
हैं,
रंगहीन से,
कई
सपने,
सप्त-रंग सा,
उमर
जाओ!
तुम
जो रूठे
हो तो
रूठी
है
ये दुनियाँ,
सूनी
है
मांग कई,
हुई
फीकी
सी
नई
चूड़ियाँ,
कोई
रंग,
बेरंग न हो,
बरस
जाओ!
ओ
बेजार से रंग,
छलक
जाओ!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)