Wednesday, 4 May 2022

घेरे


आ घेरती हैं, हजारों ख्वाहिशें हर पल,
कहां होता हूं अकेला!

भले ही,भीड़ से खुद को बचाकर,
मींच लूं आंखें,
ये प्यासी ख्वाहिशें, बस रखती हैं जगा के,
दिखाती हैं, अरमानों का मेला,
कहां होता हूं अकेला!

म‌न ही जिद्दी, जा बसे उस नगर,
यूं लेकर, संग,
ख्वाहिशों के, बहकते चटकते-भरमाते रंग,
हर पल, फिर वही सिलसिला,
कहां होता हूं अकेला!

उनकी इनायत, उनसे शिकायत,
उनके ही, घेरे,
सुबहो और शाम, यूं लगे ख्वाहिशों के डेरे,
वहीं दीप, अरमानों का जला,
कहां होता हूं अकेला!

आ घेरती हैं, हजारों ख्वाहिशें हर पल,
कहां होता हूं अकेला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 30 April 2022

आत्ममुग्धि

पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर, 
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!

यूँ कल, कितने, विखंडित थे वो पल,
न था, अन्त, अनन्त तक,
बस इक, टिमटिमाता सा एहसास,
जरा सी चांदनी,
और, दूर तलक, बिखरा सा आकाश,
यूँ ही, अचानक, 
संघनित हो उठी, स्मृतियां,
बरस पड़े बादल!

छूकर, बह चली, इक अल्हड़ पवन,
यूँ, बज उठे, सितार सारे,
लरज उठी, कूक सी कोयलों की,
गा उठे, पल,
थिरकने लगे, उनकी पांवों के पायल, 
यूँ ही, छनन-छन,
भूल कर राहें, यह पथिक,
जाए, वहीं चल!

ये कैसी तृप्ति, ये कैसी आत्ममुग्धि!
मंत्रमुग्ध हो, एक प्यासा,
बिन पिये ही, ज्यूं पी चुका सुधा,
सदियाँ जी चुका,
उस गगन पर, एक हारिल उड़ चला,
स्वप्न ही बुन चला,
यूँ ही, कहीं ना, टूट जाए,
ख्वाबों के महल!

पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर, 
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 16 April 2022

मौन

बोल उठा कुछ, उस शून्य में व्याप्त मौन,
रहा, हठात खड़ा, जड़वत, मैं!

यूँ छेड़ गया, वो, चेतनाओं के तार,
ज्यूं, कांप उठा हो पर्वत,
लहर-लहर, मचल रही, इक सागर तट,
हों जैसे, प्राण विकल!

बींध गई, मेरे सूनेपन को, वो मौन,
अचेतन, रह पाता कैसे!
बटोरता, कैसे इस मन की एकाग्रता मैं!
रोकता कैसे, हलचल!

ठुकराए कैसे, कोई, मौन निमंत्रण,
बहला ले जाए, उस ओर,
निःशब्द वे मौन, निरुत्तर करते वे शोर,
दे, आमंत्रण प्रतिपल!

ढ़लते, ख़ामोश वहीं, मेरे ही साए,
गुमसुम सी, चेतना लेकर,
उलझ भावनाओं में, सोचता मनपंछी,
संभल दूर कहीं चल!

बोल उठा कुछ, उस शून्य में व्याप्त मौन,
रहा, हठात खड़ा, जड़वत, मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 2 April 2022

पतवार

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?
ठहर, ऐ नाव मेरे,
वक्त की पतवार ही, इक धार लाएगी,
बहा ले जाएगी, तुमको,
आंहें क्यूँ भरे!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?

अभी, बहते पलों में, समाया एक छल है,
ज्यूं, नदी में, ठहरा हुआ जल है,
बांध ले, सपने,
यूं, ठहरता पल कहां, रोके किसी के!
कहीं, तेरे संग ये पल,
छल ना करे!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?

पहलू अलग ही, वक्त के बहते भंवर का,
बहा ले जाए, जाने किस दिशा,
है जिद्दी, बड़ा, 
रोड़ें राह के, कभी थाम लेती हैं बाहें,
वास्ता, उन पत्थरों से,
यूं कौन तोड़े!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?

डोल जाए ना, कहीं, अटल विश्वास तेरा!
तू सोचता क्यूं, संशय में घिरा?
ले, पतवार ले,
धीर रख, मन के सारे संशय वार ले,
पार जाएगी, ये नैय्या,
मन क्यूं डरे!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?
ठहर, ऐ नाव मेरे,
वक्त की पतवार ही, इक धार लाएगी,
बहा ले जाएगी, तुमको,
आंहें क्यूँ भरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 31 March 2022

ढ़ाई युग - एक यात्रा

ढ़ाई युग, ढ़ाहे हैं अब तक....
कुछ पन्थ बने, वो पन्ने अब ग्रन्थ बने,
लिखते-लिखते, कल तक!

देखता हूँ, अब, उसी पन्थ पर, 
पीछे, मुड़-मुड़ कर,
आ घेरती है मुझे, 
अपनी ही, व्यक्तित्व की गहरी परछाईं,
जो संग चला, संग-संग ढ़ला,
ढ़ाई युग तक!

परिप्रेक्ष्य ही, बदल चुके अब,
परछाईं सा, वो रब,
कहाँ विद्यमान में!
खाली कुछ पल, हो चले प्रभावशाली,
गहराते रहे, यूँ सांझ के साए,
अंधियारों तक!

छूटा, शेष कहीं, उन ग्रन्थों में,
फर-फराते, पन्नों पर,
जीवंतता खोकर,
व्यक्तित्व का, शायद, दूसरा ही पहलू,
उभरे ना, इक दूसरी परछाईं,
दूजे पन्नों तक!

मगर, इक शेष, खड़ा सामने,
लक्ष्य, हैं कई साधने,
वो युग के संबल,
संग खड़े, अनुभव के अक्षुण्ण पल,
और, कहीं साधक सी जिद,
पले प्राणों तक!

ढ़ाई युग, ढ़ाहे हैं अब तक....
यूँ युग और ढ़हें, नवपन्थ, नवग्रन्थ बनें,
लिखते-लिखते, कल तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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30.03.1992 से 30.03.2022
कुछ यादगार तस्वीरें और पड़ाव ....
Year 1992
Year 2022
Year 1992
Year 2022


Saturday, 19 March 2022

दीर्घ श्वांस

आपा-धापी में....
शुकून, इक पल मिल सके जब....
तब, दीर्घ श्वासें भर सकूंगा,
तुमसे, मिल सकूंगा!

यूँ तो, आपा-धापी में, भूल बैठा खुद ही को,
रहा निरंतर, खुद से ही निरुत्तर,
कहता, क्या किसी को!
शिकायत तुम जो करते, मैं जाग जाता,
सोए एहसासों को जगाता,
रहे तुम साथ ही, पर मैं!
साथ था कब?

आपा-धापी में....
शुकून, इक पल मिल सके जब....
तब, दीर्घ श्वासें भर सकूंगा,
तुमसे, मिल सकूंगा!

खिली इस बागवां में, अधखिली ही ये कली,
मुरझा चुके, मन के फूल कितने,
आ चुभे, यूँ शूल कितने,
इस राह पर, तुम, जताते अधिकार गर,
रुक ही जाता, मैं रास्तों पर,
सहते गए, तुम धूप सारे, 
गुम रहा मैं!

आपा-धापी में....
शुकून, इक पल मिल सके जब....
तब, दीर्घ श्वासें भर सकूंगा,
तुमसे, मिल सकूंगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 18 March 2022

फाग के रंग

यूँ रंग ले, मेरे संग, फाग के रंग!

खिल न पाएंगे, यूँ ही हर जगह पलाश,
न होगी, हर घड़ी, ये फागुनी बयार,
पर, न फीके होंगे, गीत ये फाग के,
रह-रह, बज उठेंगे, मन के अन्दर,
मिल ही जाएंगे, चलते-चलते, तुझ संग,
वो चटकते, टेसुओं से, लाल रंग!

यूँ रंग ले, मेरे संग, फाग के रंग!

रंग सारे, यूँ, खिल उठेंगे फागुन से परे,
गीत मन के, बज उठेंगे नाद बनके,
ये मौसम, यूँही, सदा बदलते रहेंगे,
पर तुझको ही तकेंगे, ये नैन मेरे,
मौसम से परे, खिल ही जाएंगे तेरे संग,
वो चटकते, टेसुओं से, लाल रंग!

यूँ रंग ले, मेरे संग, फाग के रंग!

झूलेगी कहीं, बौराई, डाली आम की,
कह उठेंगी, हर, कहानी शाम की,
बिखरेंगे पटल पर, यूँ रंग हजारों,
उस फाग में, होंगे हम भी यारों,
उभरेंगे आसमां पर, शर्मो हया के संग,
वो चटकते, टेसुओं से, लाल रंग!

यूँ रंग ले, मेरे संग, फाग के रंग!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

रंग

कुछ रंग ही तो, भरे थे हमनें,
तुम्हारी मांग में,
और तुमने, रंग डाले,
सारे, सपने मेरे!

और, आज भी, दैदिप्य सा है,
तुम्हारे भाल पर,
सफेद, बालों के मध्य,
वही, लाल रंग!

और इधर! चुप, मंत्र-मुग्ध मैं,
ताकूँ, वो ही रंग,
बिखरे, जो यकीन बन,
जिंदगी में, मेरे!

कुछ रंग ही तो, भरे थे हमनें,
बुने, कुछ ख्वाब,
और तुमने, रंग डाले,
सारे, ख्वाब मेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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परिकल्पनाओं में पलते, सारे रंग,
उम्र भर, रहें आप संग।।।

होली की अशेष शुभकामनाओं सहित.......

Sunday, 13 March 2022

हार जाता हूँ

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

हरा देती है, मुझको, एक झलक तेरी,
बढ़ा जाती है, और ललक मेरी,
एक झलक वही फिर पाने को, बार-बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझमें, शायद, सागर है इक समाया,
है गागर सा, जो छलक आया,
उन लहरों संग, ठहर जाने को, हर बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

मन ही जो हारा, करे क्या बेचारा?
जागे, तक-तक रातों का तारा,
विवशता वश, जताने अपना अधिकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

जैसे, थका हारा, एक मुसाफिर मैं, 
भाए ना, जिसको, कोई भी शै,
सारे स्वप्न अधूरे, कर लेने को साकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 March 2022

समय से परे

गहन अनुभूतियों ने, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

किसकी परछाईं थी, जो दबे पांव आई थी!
चुप सी बातों में, कैसी गहराई थी?
जैसे, वियावान में, गूंज कोई लहराया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

संकोचवश, वो शायद कुछ कह ना पाए हों!
वो, दो पंखुड़ियां, खुल ना पाए हों!
अनियंत्रित पग ही, उन्हें खींच लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

अक्सर, उसकी ही बातें, अब करता है मन,
बिन मौसम, कैसा छाया है ये घन!
पतझड़ में, डाली फूलों से भर आया था,
न जाने, कौन यहां आया था! 

भ्रम मेरा ही होगा, सत्य ये हो नहीं सकता!
नहीं एक भी कारण, आकर्षण का,
शायद, बावरे इस मन ने ही भरमाया था, 
न जाने, कौन यहां आया था!

पर हूँ वहीं, अब भी, लिए वही अनुभूतियां,
पल सारे, अब भी, कंपित हैं जहां,
सीमाओं से परे, समय जिधर लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

गहन अनुभूतियों नें, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)