Friday, 1 July 2022

बिन पूछे


मन मानस पर, छाई, इक परछाईं सी,
पलकों पर अंकित, धुंधलाई, इक तस्वीर,
जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

जैसे, बिन पूछे,
इक परदेसी, आ बैठा हो आंगन,
सूने से पर्वत पर, घिर आया हो घन,
बदली, ले आया हो सावन,
बूंदों की छमछम से, मन,
दीवाना सा.....

जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

कोई, क्या जाने,
हलचल, क्यूं , सागर के तट पर,
सदियों, इक खामोशी क्यूं पर्वत पर,
बूंदें, क्यूं उस बदली में गौन,
अन्तःमन, क्यूं इतना मौन,
बेगाना सा .....

जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

जाने, है कैसा,
अंजाने धागों का, यह गठबंधन,
पल-पल, अजीब सा इक आकर्षण,
परछाईं से, बढ़ता अपनापन,
हर ओर, गहराता सूनापन,
सुहाना सा .....

मन मानस पर, छाई, इक परछाईं सी,
पलकों पर अंकित, धुंधलाई, इक तस्वीर,
जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 28 June 2022

ढ़लती शाम


बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

ढ़लते वक्त का आँचल, कौन लेता है थाम!
क्षितिज पर, थककर, कौन हो जाता है मौन!
शायद, घुल जाती हैं, दो नैनों में काजल!
और, क्षितिज पर, घिर आता है बादल,
वक्त सभी, हो जाते हों, बिंदिया के नाम!

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

कदम-ताल करते, कैसे, थम जाते हैं वक्त!
बहते रक्त, नसों में, बरबस, क्यूं होते हैं सुन्न!
शायद, भाल पर, चमक उठते हैं गुलाल!
क्षितिज पर, बिखर जाते हैं सप्त-रंग,
और काजल, कर जाती हों, काम तमाम!

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

महज, संयोग नहीं, यूं, दिवस का ढ़लना!
यूं, पल से पल का मिलना, पल-पल ढ़लना!
शायद, आरंभ तुम हो, अंत तुम ही तक!
नैनों में काजल, बहता हो तुम्हीं तक,
बीत चला, फिर ये लम्हा बस तेरे ही नाम! 

बोलो ना, नैन तले, कैसे ढ़ल जाती है शाम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 June 2022

मनमीत वो ही


गुम हो, तुम कहीं,
पर तेरी परछाईयां, थी अभी तो यहीं,
तुम, गुम तो नहीं!

ज्यूं पर्वतों के दायरों में, एक खाई,
तलहटों में, सागरों के, दुनिया इक समाई,
लगती, अनबुझ सी इक पहेली,
अन-सुलझी, अन-कही,
यूं, तुम हो कहीं!

मुड़ गए कहीं उधर, मन के सहारे,
दूर, जाने किस किनारे, बिखरे शब्द सारे, 
चुन कर, लिख दूं, गीत वो ही,
बुन लूं, मनमीत वो ही,
वो, गुम ही सहीं!

रख लूं बांध कर, सब से चुरा लूं,
खुद को मना लूं, पर ये मन कैसे संभालूं,
ढूंढ लूं, फिर वही, परछाईयां,
फिर, वो ही, तन्हाईयां,
यूं, तुम संग कहीं!

गुम हो, तुम कहीं,
पर तेरी परछाईयां, थी अभी तो यहीं,
तुम, गुम तो नहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 15 June 2022

बिसारिए ना


बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
इधर जाइए!

यूं नाजुक, बड़े ही, ये डोर हैं,
निर्मूल आशंकाओं के, कहां कब ठौर हैं,
ढ़ल न जाए, सांझ ये,
दिये, उम्मीदों के,
इक जलाइए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

धुंधली, हो रही तस्वीर इक,
खिच रही हर घड़ी, उस पर लकीर इक,
सन्निकट, इक अन्त वो,
जश्न, ये बसन्त के,
संग मनाईए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

बिसार देगी, कल ये दुनियां,
एक अंधर, बहा ले जाएगी नामोनिशां,
सिलसिला, थमता कहां,
वक्त ये, मुकम्मल,
कर जाईए!

बिसरिए ना, न बिसारने दीजिए,
गांठ, मन के बांधिए,
आ जाइए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 1 June 2022

शक


बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

उस मन, पल न सका इक पौधा विश्वास का,
भरोसे का, उग न सका, इक बीज,
शक, बेशक बांझ करे मन को,
डसे, पहले खुद को,
फिर, रह-रह, दे मन को दर्द बड़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

उजड़ी, फुलवारी, कितनी ही, मन की क्यारी,
मुरझाए, आशाओं के, वृक्ष सभी,
बिखर चले, मन उप-वन सारे,
सूख चली, वो नदी,
जो सदियों, पर्वत के, शीश चढ़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

सशंकित मन, विचरे निर्मूल शंकाओं के वन,
पाले, बर-बस, निरर्थक आशंका,
विराने, पथ पर, घन में घिरा,
ढूंढ़े, अपना ही पग,
अनिर्णय के, उन राहों पर खड़ा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

निर्मल इक संसार, इस, बादल के उस पार,
बहती है, शीतल सी, एक पवन,
शक के बादल, उड़ जाने दे,
मन, जुड़ जाने दे,
टूट न जाए शीशा, विश्वास भरा!

बेशक दुश्मन बड़ा, मन इक शक भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 28 May 2022

रिक्त


उस सूनेपन में...
रात ढ़ले, ढ़ल जाऐंगे, जब वो तारे,
होंगे रिक्त बड़े, आकाश!

प्रतीक्षित होगा, तब दिन का ढ़लना,
अपेक्षित होगा, तम से मिलना,
दिन के सायों में, फैलाए खाली दामन,
‌रहा बिखरा सा आकाश!

टूटे ना टूटे, इस, अन्त:मन के बंधन,
छूटे ना छूटे, लागी जो लगन,
कंपित जीवन के पल, रिक्त लगे क्षण,
लगे उलझा सा आकाश!

रिक्त क्षणों में, संशय सा ये जीवन,
उन दिनों में, सूना सा आंगन,
लगे गीत बेगाना, हर संगीत अंजाना,
इक मूरत सा, आकाश!

उस सूनेपन में...
दिन ढ़ले, कहीं ढ़ल जाऐंगे, नजारे,
मुखर हो उठेंगे आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 26 May 2022

जाने किधर


बहा ले जाएगी, ये सफर, जाने किधर!

रोके रुकता कहां, ये भंवर!
इक धार है, इस पर कहां एतबार है,
रख दे, जाने कब डुबोकर,
ये कश्ती, किनारों पर!

बहा ले जाएगी, ये सफर, जाने किधर!

मोह ले, अगर, राह के मंजर,
मन ये, धीर कैसे धरे, पीर कैसे सहे!
जगाए, दो नैन ये रात भर,
और, सताए उम्र भर!

बहा ले जाएगी, ये सफर, जाने किधर!

देखूं राह वो, कैसे पलट कर!
तोड़ आया था जहां, स्नेह के बंधन,
पर, नेह कोई, बांधे परस्पर,
यूं खींच, ले जाए उधर!

बहा ले जाएगी, ये सफर, जाने किधर!

जाने, वो पंथ, कितना प्रखर!
आगे धार में, पल रहे कितने भंवर!
या, इक आशाओं का शहर!
यूं बांहें पसारे, हो उधर!

बहा ले जाएगी, ये सफर, जाने किधर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 4 May 2022

घेरे


आ घेरती हैं, हजारों ख्वाहिशें हर पल,
कहां होता हूं अकेला!

भले ही,भीड़ से खुद को बचाकर,
मींच लूं आंखें,
ये प्यासी ख्वाहिशें, बस रखती हैं जगा के,
दिखाती हैं, अरमानों का मेला,
कहां होता हूं अकेला!

म‌न ही जिद्दी, जा बसे उस नगर,
यूं लेकर, संग,
ख्वाहिशों के, बहकते चटकते-भरमाते रंग,
हर पल, फिर वही सिलसिला,
कहां होता हूं अकेला!

उनकी इनायत, उनसे शिकायत,
उनके ही, घेरे,
सुबहो और शाम, यूं लगे ख्वाहिशों के डेरे,
वहीं दीप, अरमानों का जला,
कहां होता हूं अकेला!

आ घेरती हैं, हजारों ख्वाहिशें हर पल,
कहां होता हूं अकेला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 30 April 2022

आत्ममुग्धि

पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर, 
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!

यूँ कल, कितने, विखंडित थे वो पल,
न था, अन्त, अनन्त तक,
बस इक, टिमटिमाता सा एहसास,
जरा सी चांदनी,
और, दूर तलक, बिखरा सा आकाश,
यूँ ही, अचानक, 
संघनित हो उठी, स्मृतियां,
बरस पड़े बादल!

छूकर, बह चली, इक अल्हड़ पवन,
यूँ, बज उठे, सितार सारे,
लरज उठी, कूक सी कोयलों की,
गा उठे, पल,
थिरकने लगे, उनकी पांवों के पायल, 
यूँ ही, छनन-छन,
भूल कर राहें, यह पथिक,
जाए, वहीं चल!

ये कैसी तृप्ति, ये कैसी आत्ममुग्धि!
मंत्रमुग्ध हो, एक प्यासा,
बिन पिये ही, ज्यूं पी चुका सुधा,
सदियाँ जी चुका,
उस गगन पर, एक हारिल उड़ चला,
स्वप्न ही बुन चला,
यूँ ही, कहीं ना, टूट जाए,
ख्वाबों के महल!

पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर, 
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 16 April 2022

मौन

बोल उठा कुछ, उस शून्य में व्याप्त मौन,
रहा, हठात खड़ा, जड़वत, मैं!

यूँ छेड़ गया, वो, चेतनाओं के तार,
ज्यूं, कांप उठा हो पर्वत,
लहर-लहर, मचल रही, इक सागर तट,
हों जैसे, प्राण विकल!

बींध गई, मेरे सूनेपन को, वो मौन,
अचेतन, रह पाता कैसे!
बटोरता, कैसे इस मन की एकाग्रता मैं!
रोकता कैसे, हलचल!

ठुकराए कैसे, कोई, मौन निमंत्रण,
बहला ले जाए, उस ओर,
निःशब्द वे मौन, निरुत्तर करते वे शोर,
दे, आमंत्रण प्रतिपल!

ढ़लते, ख़ामोश वहीं, मेरे ही साए,
गुमसुम सी, चेतना लेकर,
उलझ भावनाओं में, सोचता मनपंछी,
संभल दूर कहीं चल!

बोल उठा कुछ, उस शून्य में व्याप्त मौन,
रहा, हठात खड़ा, जड़वत, मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)