Thursday, 15 September 2022

शब की परछाईं


रैन ढ़ले, सब ढ़ल जाए,
शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

तमस भरा, आंचल,
रचता जाए, नैनों में काजल,
उभरता, तम सा बादल,
बाहें खोल, बुलाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

इक, अँधियारा पथ, 
और, ये सरपट दौड़ता रथ,
अन-हद अनबुझ कथ
यूं , कहता जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

जलते बुझते सपने,
ये हल्के, टिमटिम से गहने,
बोझिल सी पलकों पर,
कुछ लिख जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

जीवन्त, सार यही,
शब सा, इक संसार यही,
सौगातें, सपन सरीखी,
नैनों को दे जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 5 September 2022

सफर में


खत्म होता नहीं, ये सिलसिला,
बिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!

भींच लूं, कितनी भी, ये मुठ्ठियां,
समेट लूं, दोनों जहां,
फिर भी, यहां दामन, खाली ही मिला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....

फिर भी, थामे हाथ सब चल रहे,
बर्फ माफिक, गल रहे,
बूंद जैसा, वो फिसल कर, बह चला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....

खुश्बू, दो घड़ी ही दे सका फूल,
कर गया, कैसी भूल,
रंग देकर, बाग को,  वहीं मिट चला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....

बनता, फिर बिखरता, कारवां,
लेता, ठौर कोई नया,
होता, फिर शुरू इक सिलसिला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

फिक्र


फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

यूं, बिछड़ कर, सदा जिक्र में जो रहे,
क्या हो, कल किसी राह में, अगर वो फिर मिले!
जग उठे, शायद, फिर वो ही अनबुने सपने,
जल उठे, फिर, अधबुझी सी वो शमां,
इक अंधेरी रात में!

फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

जिक्र फिर, उनकी ही हो, हर घड़ी,
जल उठे, अंधेरों में, इक संग, करोड़ों फुलझड़ी,
जलती हर किरण, राहों में, उनको ही ढूंढे,
बस फिक्र ये ही, कि वो फिर ना रूठे,
यूं जरा सी बात में!

फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

गुम है मगर, उन रास्तों का सफर,
न उन राहों का पता, न उन दरक्तों की है खबर,
धूमिल से हो चले, उन कदमों के निशान,
गहराते इस रात का, न कोई विहान,
न ही कोई साथ में!

फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 23 August 2022

किनारों पर


खड़ा, सागर की, किनारों पर,
इक टक देखता, उस मुसाफ़िर की मानिंद था मैं,
और वो, उस लहर की तरह!

हर बार, छू जाती है, जो, आकर किनारों पर,
और लौट जाती है, न जाने किधर,
फिर उठती है, बनकर इक ढे़ह सी उधर,
देखता हूं, मैं वो लहर,
अनवरत, खड़ा सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

करे क्या! हैरान सा, हारा वो बेवश मुसाफ़िर,
बेपरवाह, उन्हीं लहरों का मुंतजिर,
हर पल, छूकर, करती जाती है जो छल,
लिए, उसी की आस,
प्रतीक्षारत, वहीं सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

झंकृत, हर ओर दिशा, और वो, मंत्रमुग्ध सा,
कोई संगीत सी, बज उठती लहर,
बज उठते, कई साज, उनकी इशारों पर,
वो चुने, वो ही गीत,
कल्पनारत, वहीं सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

उन लहरों से इतर, बे-सबर, जाए तो किधर,
अमिट इक चाह, अमृत की उधर,
और अन्तः, गरल कितने छुपाए सागर,
धारे, वो ही प्यास,
प्रतिमावत, खड़ा सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

खड़ा, सागर की, किनारों पर,
इक टक देखता, उस मुसाफ़िर की मानिंद था मैं,
और वो, उस लहर की तरह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 18 August 2022

परिचय


क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

गल जाना है इक दिन, मिल जाना है माटी में,
फिर, पहने फिरते हो क्यूं,माया का गहना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

अन्त:स्थित इक चित्त, रहा सर्वथा अपरिचित,
पहले, इक डोर परिचय के, उनसे बांधना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

पूजे जाते वो शील, जिनमें अनुशीलन रब का,
राह पड़े उन शीलों को, कौन बनाए गहना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

मिल लेना, उस से, जो मिलता हो मुश्किल से,
छिछले से सागर तट पर, मोती क्या चुनना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

ढूंढो तो इस कण-कण मिल जाएं, शायद राम,
पर आवश्यक, विश्वास, लगन और साधना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 14 August 2022

कुछ तो है


बादलों की, चपलता,
और, भीगे मेघों की, गर्जना के मध्य,
कुछ, तो है!

है उनको खबर,
कि, तय करना है उन्हें, एक लम्बा सफर,
उधर, इस छोर से, उस छोर तक,
हठीले, मोड़ तक,
टूटकर, कहीं बिखरेंगे वो,
बरस जाएंगे, मुस्कुराकर, तप्त धरा पर,
काम आ जाएंगे, किसी के,
प्यासे जो है!

बादलों की, चपलता,
और, भीगे मेघों की, गर्जना के मध्य,
कुछ, तो है!

वो, दे जाएंगे,
किसी सर, घनी सी, इक छांव क्षण भर,
सब कुछ, यूं दामन से, लुटा कर,
खुद को भुलाकर,
बस जाएंगे, उन्हीं की, सुप्त चेतना में,
विलख कर, विरह वेदना में,
तरपे जो हैं!

बादलों की, चपलता,
और, भीगे मेघों की, गर्जना के मध्य,
कुछ, तो है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 13 August 2022

एहसास


वो कोई खुश्बू,
वो जिन्दा सा, एहसास कोई!
वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

वो बांध गए, किन एहसासों की डोरी से,
शायद चोरी से!
चुपके से, यूं पांव दबे,
जब सांझ ढ़ले,
ढ़लती किरणों संग, उनकी ही बात चले,
रात ढ़ले,
जिन्दा हो, एहसास कोई,
है साथ वही!

वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

वो कब ठहरे, रुक जाए कब, यूं राहों में,
उन्ही, आहों में,
भर दे, हल्की सिहरन,
उस, छांव तले,
जब भोर जगे, फिर उनकी ही बात चले,
राह चले,
झौंकों सी, इक वात कोई,
हो, संग वही!

वो कोई खुश्बू,
वो जिन्दा सा, एहसास कोई!
वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

घन


हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

पहले छा जाना, मन को भा जाना,
धुंधला सा, ये गहरा आंचल, फिर फैलाना,
उतर आना, इक बदली सा आंगन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

यूं भर लेना नैनों में थोड़ा काजल,
ज्यूं रात, मचल कर,  गाती हो एक ग़ज़ल,
और साज कहीं, बजते हों उपवन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

फिर चाहे तू कहना मन की व्यथा,
या रखना, मन की बातें, मन में ही सर्वथा,
उतर आना, नीर सरीखे, नयनन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

सूना ये आंगन, संवर जाए थोड़ा,
सरगम की छमछम से, भर जाए ये जरा,
बज उठे शंख कई, इस सूनेपन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 9 August 2022

दो दिन जीवन


शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

पा लेने को, है उन्मुक्त गगन,
है छू लेने को, उम्मीदों के कितने घन!
खुला-खुला, उद्दीप्त ये आंगन,
बुलाता, ये सीमा-विहीन क्षितिज,
भर आलिंगन!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

जितना सौम्य, उतना सम्यक,
रहस्यमयी उतनी ही, यह दृष्टि-फलक!
धारे रूप कई, बदले रंग कई!
हर रूप अनोखा, हर रंग सुरमई,
और मनभावन!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

पर अंजाना आने वाला क्षण!
ना जाने कौन सा पल, है कितना भारी!
किस पल, बढ़ जाए लाचारी!
ना जाने, ले आए, कौन सा पल,
अन्तिम क्षण!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

समेट लूँ, जो शेष है जीवन!
भर लूँ दामन में, कर लूँ इक आलिंगन!
कंपित हो, सुसुप्त धड़कन!
जागृत रहे, किसी की वेदना में,
ये हृदयांगण!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 7 August 2022

कोरी कल्पना


रहना हो, तो ‌‌‌‌‌‌‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
और, रोज मिलना!

चल देते हो, तुम, ऐसे,
जैसे, दिन ढ़ले, ढ़ल जाते हैं असंख्य तारे,
खुल जाते हैं, आकाश के, दो किनारे,
यूं ठहरते हो, कब!

ठहर जाओ कुछ ऐसे,
जैसे, गहराते हैं, मेंहदी के रंग, हौले-हौले,
बहती ये नदियाँ, ज्यूं, सागर को छूले,
और, निखर जाए!

सब दरवाजे, हैं खुले,
रिक्त सारे, कल्पनाओं के ये उन्मुक्त झूले,
खाली सा, आकाश का सारा दामन,
जरा, सँवर जाए!

रहना हो, तो ‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
क्या, रह सकोगे सदा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)