Friday, 8 January 2016

मन क्या है?


सोचता हूँ कभी!

मन जैसी कोई चीज है भी क्या?
खुशी के एहसास, दुःख का आभाष,
शरीर के अन्दर होता हैं कहाँ?
क्या तन्तुओ और कोशिकाओं मे?
इन्हें कौन दिग्दर्शित करता है?
शायद मन है क्या वह?

सोचता हूँ कभी!

मन का कोई आकार भी है क्या?
ठोस, द्रव्य, नर्म, मुलायम या कुछ और?
एहसास सुख के करता कहाँ?
दुःख का आभाष होता इसे कैसे?
मन टूटने पर पीड़ा तो होती है,
पर टूटने की आवाज क्युँ नही होती?
मन जैसी कोई चीज है भी क्या?

सोचता हूँ कभी!

पत्थर टूटे तो होता घना शोर,
शीशा टूटने से होती चनकार सी,
कागज फटने होती सरसराहट सी,
पत्तों के टूटने से होता मंद शोर,
फूलों के मसलने की भी होती सिसकी,
पर इस मन के टूटने से?
मन के टूटने से उठती है कराह!!!!!
मस्तिष्क के तार झंकृत हो उठते हैं,
क्षण भर को शरीर शिथिल हो जाता है,
पत्थरों के दिल भी भेद जाते हैं,
आसमान से बूँद छलक पड़ते हैं,
शायद मन सबसे कठोर होता है!

सोचता हूँ कभी?

Thursday, 7 January 2016

मुक्ति सृष्टि पार


तू सोचता क्या मुसाफिर?

सृष्टि के उस पार
तुझे है जाना,
मुक्ति तेरी वहाँ खड़ी है,
अनन्त राह तेरी उस ओर।

मुड़ कर तू वापस,
क्या देखता बार-बार?
अनन्त हसरतें तेरी,
खीचे तुझको पीछे हर बार,
हंदयअन्तस के आँखो की
असीम गहराई से तू देख,
कौन साथ खड़ा है तेरे?
जिसकी राह तू रहा निहार!

जीवन का अन्त ही,
ब्रम्ह का अचल सत्य,
चक्षु पटल खोल तू,
इस सच से मुँह न मोड़,
मोह माया धन जंजाल,
सब कुछ छोड़कर पीछे,
चला जा उस राह तू,
मुक्ति तेरी वहाँ छुपी है,
अनन्त ले जाए जिस ओर!

कौन तुम

अधरों पे अधखुली सी मुस्कान,
अपलक देखती हो तुम अंजान,
नयन तरकश छोड़ते कई वाण,
कौन तुम, बस गई जो हिय आन।

हिरण सदृश चपल चंचल नयन,
आभा मुख उसके अति-सुहावन,
विस्मित करते तेरे मधुर मुस्कान,
कौन तुम, रम गई जो मन प्राण।

तू महज सपना या साकार तुम,
तुम अनन्त हो या आकार  तुम,
या किसी कवि की कल्पना तुम,
कौन तुम, बिन तेरे आकुल प्राण।

पहरे लगे हैं

बीते वर्षों हृदय की अनुभूति समेटे,
युग बीते अनेकों ख्वाहिशें देखे,
पहरे लगे हैं यहाँ हसरतों पे!

आँखों की पलकों मे पलते कई सपनें,
अभिलाषा के यौवन लेकिन खोए,
पहरे लगे हैं यहाँ पलकों पे!

शीतल जल की तृष्णा अमिट जीवन मे,
व्रत प्यास का धारण किया है हमनें,
पहरे लगे हैं यहाँ तृष्णाओं पे!

कामना के कंच कलश से ख्वाब हृदय में,
बुझते नही प्यास वारिधि मे भी अब,
पहरे लगे है यहाँ ख्वाबों पे!

Wednesday, 6 January 2016

तू स्वयं का विधाता

वो दूर से खामोशियों की सदाएँ दे रहा कौन?
मुझको करने दे जरा आराम तू।
व्योम को जख्मों के नासूर दिखा रहा है कौन?
सृष्टि को करने दे जरा आराम तू।
चुप रहकर वसुधा को मन की व्यथा कह रहा कौन?
वसुधा को करने दे जरा आराम तू।

तू है भी कौन ? 
तू इतना महत्वपूर्ण नहीं!
तेरी सुननेवाला यहाँ कोई नही!
सब की अपनी कथा सबकी पीड़ा!
सब अपनी व्यथा से है व्यथित!
सब है यहाँ थके हुए, करने दे इन्हे विश्राम तू।

अपनी खामोशी, जख्म, मन की व्यथा,
सारे गम तुझे खुद ही होंगे झेलना,
इस भव-सागर में तुझे स्वयं है तैरना।

तू ही अपनी सृष्टि का पालक,
तू ही अपनी वसुधा का रक्षक,
तु ही है स्वयम् का नियोक्ता,
तू ही खुद का विधाता, कर जरा सा काम तू।
सब है यहाँ थके हुए, करने दे इन्हे विश्राम तू।

संचित प्रीत का आँचल

प्रीत तुझसे ही प्यास तुझसे ही!

संचित प्रीत का आँचल बन,
फैल जाओ तुम हृदय पर,
बेसुध धड़कनों को,
थोड़ा सहारा मिल जाए,
हृदय के अन्तस्थ की प्यास,
जरा सी तो बुझ जाए!

स्वर तुझसे ही एहसास तुझसे ही!

संगीत हृदय वीणा का बन,
मधुर तान तुम छेड़ो मन पर,
बेसुरे एहसासों को,
तार स्वर का मिल जाए,
जर्जर वीणा के सुर की प्यास,
थोड़ी सी तो बुझ जाए!

संचित प्रीत का आँचल तुझसे ही!

दिल ढूंढता अक्सर

चुपके से जो कह दी थी जो तूने,
कानों मे फिर बात वही मद्धिम सी,
अकंपित एहसास फिर लगे थे जगने,
आँखों मे जल उठी थी इक रौशनी,
सपने सजीव होकर लगे थे सजने।

दीप अगिनत जले थेे आशाओं के,
स्वर अनन्त उभरे थे मधुर वादों के,
बजते थे प्राणों में संगीत वीणा के 
झूमते थे वाद्य कितने अरमानों के,
मंजर कितने बदले थे एहसासों के।

स्वर वही ढ़ूंढता रहता दिल अक्सर,
फिरता वियावान वादियों मे निःस्वर,
राहों में दिखता नहीं कोई दूर-दूर तक,
रौशनी फिर वही ढ़ूढ़ती रहती हैं आँखे,
अंधेरों में नूर कोई जलता नही दूर तक।