Saturday, 9 June 2018

पलकों तले रात

न जाने, क्या-क्या कहती जाती है ये रात....

पलकों तले, तिलिस्म सी ढ़लती ये रात,
धुंधली सी काली, गहराती ये रात,
झुनझुन करती इतराती कुछ गाती ये रात,
पलकों को, थपकाकर सुलाती ये रात!

नींद में डबडब, बोझिल होती ये पलकें,
कोई बैठा हो, जैसे आकर इन पर,
बरबस करता हों, इन्हें मूंदने की कोशिश,
सपनों को इनमें, भरने की कोशिश!

अंधियारे में उभरते, ये चमकीले से रंग,
सपनों की, ये धुंधली सी महफिल,
सतरंगी सी दुनियाँ में, मन का भटकाव,
इक अजूबा सा, अंजाना सा ठहराव!

पलकों तले, तैरती उभरती कई तस्वीरें,
विविध रंगों से रंगा ये सारा पटल,
मन मस्तिष्क पर, दस्तक देते रह रहकर,
सब है यहीं, पर कहीं कुछ भी नहीं!

पलकों तले ये रात.....
कोई तिलिस्म सी ढ़लती ये रात,
न जाने, क्या-क्या कहती जाती है ये रात....

Wednesday, 6 June 2018

आज का दौर

बस इक अंतहीन सी तलाश है हर किसी को....
या हो महज ये दो जून की रोटी,
या खुद का खोया वजूद,
या कभी न मिटने वाली मानसिक भूख...

इक अनबुझ सी प्यास,
ये कभी न खत्म होने वाली तलाश,
अध्यात्म से आत्म की ओर,
जीने की जीवट जीजिविषा लिए,
पैरों को जमीन पर घसीटता,
पसीने से लथपथ,
माथे पे शिकन भरी लकीरें,
अजीब सी उदास आँखें लिए,
इधर उधर न जाने क्या तलाशता इंसान...

भूखे प्यासे भटकते लोग,
कुछ मनचाहा सा टटोलते ये लोग,
बेहिसाब अंधाधूंध भागते लोग,
बसें, ट्राम, टैक्सी, मोटरों का शोर,
हर तरफ परेशानियों का कहर,
बातों में घुलते जहर,
ईंट गाड़ा पत्थरों के ये शहर,
भीड़ में खुद को ही सम्भालते हुए,
मंजिलों को तलाशते ये मिट्टी के इंसान....

संबंधों में खूश्बू की आस,
करीबी रिश्तों में भरोसे की तलाश,
घटता अपनत्व, टूटता विश्वास,
सब छोड़कर, सब पाने की होड़,
बारिश में दो बूंद की प्यास,
मिश्री की घटती मिठास,
अंजान राहों पे अंतहीन सफर,
सब कुछ सहेजा फिर भी उलझा सा,
न जाने किन गिरहों को खोलता इन्सान.....

या हो महज ये दो जून की रोटी,
या खुद का खोया वजूद,
या कभी न मिटने वाली मानसिक भूख...
बस इक अंतहीन सी तलाश है हर किसी को....

Tuesday, 5 June 2018

यहीं सांझ तले

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

दरख्त-दरख्त जब ठूंठ हो जाए,
धूप दरख्तों से छनकर तन को छू जाए,
आस बने जब इक सपना,
भीड़ भरे जीवन में, कोई ना हो अपना,
जब एकाकी सा ये दिन ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

धूप तले जब यूं ही दिन ढ़ल जाए,
थककर चूर कहीं जब ये बदन हो जाए,
वक्त बदल ले सुर अपना,
छलके आँसू बनकर, आँखों से सपना,
वक्त की धूप, बदन छू ले...

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

जब जीवन सुर मद्धिम पड़ जाए,
कोयल इन बागों में, कोई गीत न गाए,
जर्जर हो जाए ये मन वीणा,
झंकार न हो कोई, सूना सा हो अंगना,
सूना-सूना सा ये सांझ ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

Saturday, 2 June 2018

ललक

चुरा लाया हूं बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....

कलकल से बहते किसी पल में,
नर्म घास की चादर पर, कहीं यूं ही पड़े हुए,
एकटक बादलों को निहारता मैं,
वो घुमड़ते से बादल, जैसे फैला हों आँचल,
बूंद-बूंद बादलों से बरसती हुई फुहारें,
वो बेपरवाह पंछियों की कतारें,
यूं हौले से फिर, मन मे भीगने की ललक,
बूंद-बूंद यूं संग भीगता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से वो ही झलक!
इक ललक, जो बाकी है अब तलक.....

ठंढ से ठिठुरते हुए किसी पल में,
चादरों में खुद को लपेटे, सिमटकर पड़े हुए,
चाय की प्याली हाथों में लिए मैं,
गर्म चुस्कियों संग, किन्ही ख्यालों में गुम,
धूप की आहट लिए, सुस्त सी हवाएँ,
कभी आंगन में यूं ही टांगे पसारे,
यूं आसमां तले, धूप में बैठने की ललक,
संग-संग यूं ही गर्म होता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....

Thursday, 31 May 2018

वृथा ये अभिमान

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

दो घड़ी का बस है ये जीवन,
इधर साँस टूटी, उधर टूटा ये बंधन!
क्यूं है इस सत्य से अन्जान?
है मृदा से बना तू, न कर अभिमान ऐ इन्सान!

है वृथा का ये अभिमान.....

इस माटी से बना ये तन तेरा,
पंचतत्व की, इक ढ़ेर पर है तू खड़ा!
क्यूं फिराक में तू है जुड़ा?
पंचतत्व में ही विलीन होकर, तू पाएगा त्राण!

है वृथा का ये अभिमान.....

मृषा ही मलीन है ये तेरा मन,
वृथा ही विषाद में, है निष्कपट मन,
क्यूं ढ़ो रहा है तू अभिमान?
रम रहा ईश्वर ही सबके मन, तू जरा ये जान!

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

चराग

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

यूं तो रौशनी भरते रहे, वो सारी रात,
अंधेरों संग अकेले, लड़ते रहे वो सारी रात,
तप्त तेल संग, तलते रहे अंग-अंग,
पर, ये तंज अंधेरे, कसते रहे असह्य व्यंग,
कालिख चराग की, कह गई थी ये बात.....

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

दिल में ही थी जली, दिल की बात,
बुझ गए जलते हुए, खुद ही वो चराग,
जल चुके थे, पतंगे कई साथ-साथ,
जल चुकी थी प्रीत, और जले थे जज्बात,
रात के दामन में, मिट गए थे ये चराग.....

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

युं धू-धू कर जले, चरागों के ख्वाब,
ज्यूं चिंता में, भस्म हुए हों मरने के बाद,
मन में लिए, कुछ अनकही सी बात,
चिताओं सी दहकती, वो जलती सी रात,
बंद पलकों तले, ढ़ल गई वो भी साथ......

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

Sunday, 27 May 2018

प्रार्थना

श्रद्धा सुमन, है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

स्वीकार लो ये मेरी प्रार्थना,
निष्काम निष्कपट मेरी साधना,
भूल कोई भी, गर मैं करूं,
तू ही, बाँहें मेरी थामना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना यही इक आशीर्वचन....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

कहीं भटकें हो जब राहों में,
विमुख हों कर्मपथ से ये कदम,
खुद पे अहंकार मैं करूं,
तुम मार्गदर्शक बनना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना ज्ञान की ऐसी किरण....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

प्रभा विहीन हो जब प्रभात,
दुष्कर सी हो जब ये काली रात,
अपनी ही साये से मैं डरूं,
तू ही, मशाल थामना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना प्रकाशित वो ही किरण....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!