Saturday, 24 April 2021

जीवट युगद्रष्टा

युगों-युगों, वो ही लड़ा!
ज्यूँ पीर, पर्वत सा, बन कर अड़ा,
चीर कर, धरती का सीना,
सीखा है उसने, जीवन जीना,
हारा कब, मानव,
जीवट बड़ा!

ढ़हते, घिसते, पिसते शिखर देखे,
बहते, उमरते, उफनते सागर देखे,
बवंडर, आईं और गईं,
सुनामियाँ, विभीषिक व्यथा लिख गईं,
जल-प्रलय, कहरी रुक गईं, 
महामारी, असह्य कथा ही कह गई,
कांधे, लाशों के बोझ धारे,
झेले, कहर सारे,
पर, हिम्मत कब वो हारे,
संततियों संग, युगों-युगों रहा डटा,
दंश, सह चुका, यह युगद्रष्टा,
मानव, जीवट बड़ा!

विपरीत, पवन कितनी!
घिस-घिस, पाषाण, हुई चिकनी,
संकल्प, हुई दृढ़ उतनी,
कई युग देखे, बनकर युगद्रष्टा,
खूब लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 21 April 2021

समर

ये समर है मेरा, लड़ना है मुझको ही!

लहु-लुहान, यह रणभूमि,
पर, यह रण, अभी थमा नहीं,
निःशस्त्र हूँ, भले ही,
पर शस्त्र, हमने अभी, रखा नहीं,
हमने बांधा है सेहरा, ये समर है मेरा,
रक्त की, अंतिम बूँदों तक, 
लड़ना है मुझको ही!

ये समर है मेरा, लड़ना है मुझको ही!

ये पथ, हों जाएँ लथपथ,
होंगे और प्रशस्त, ये कर्म पथ,
लक्ष्य, समक्ष है मेरे,
छोड़ी है, ना ही, हमने राह अभी,
तुरंग मैं, कर्म पथ का, रण है ये मेरा,
साँसों की, अंतिम लय तक,
लड़ना है मुझको ही!

ये समर है मेरा, लड़ना है मुझको ही!

बाधाएं, विशाल राहों में,
पर, क्यूँ हो मलाल चाहों में,
भूलें ना, इक प्रण,
कर शपथ, छोड़ेंगे हम ना रण,
तोड़ेगे हर इक घेरा, समर है ये मेरा,
बाधा की, अंतिम हद तक,
लड़ना है मुझको ही!

ये समर है मेरा, लड़ना है मुझको ही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 20 April 2021

तृष्णा

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मानव की खातिर, कितना मुश्किल है खोना,
अपूरित ख़्वाहिशों का, जग उठना,
उस अनदेखे की, ख्वाहिशों संग सोना,
उनको भी, मन चाहे पा लेना,
निर्णय-अनिर्णय के, उन दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मन, पाए ना राहत, जग जाए जब ये चाहत,
अन्जाने ही, मन होता जाए आहत,
भ्रम की इक, किश्ती में, वो ढूंढे राहत,
जाने, पर स्वीकारे ना ये सत्य,
चाहत के, उस अनिर्णीत दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

खो दे कुछ भी, उन अनिश्चितताओं के बदले,
पाना चाहे, उन इच्छाओं को पहले,
भले ही इच्छाओं को, इच्छाएं ही डस ले,
कैसी आशा, कैसा यह स्वप्न,
अंधियारे से, इक विस्तृत दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इच्छा
1. कामना, चाह, ख्वाहिश; 2. रुचि।

इक्षा
1. नज़र; दृष्टि 2. देखने की क्रिया; दर्शन 3. विचारना; विवेचन करना; पर्यालोचन।

Monday, 19 April 2021

नारायण ही जाने

हम तो ठहरे, अन्जाने,
नारायण ही जाने, वो क्या-क्या जाने!

इक उम्र को, झुठलाते,
विस्मित करती, उनकी न्यारी बातें,
कुछ, अनहद प्यारी,
कुछ, उम्मीदों पर भारी!

नारायण ही जाने......

बातें, या जीवन दर्शन,
वो ओजस्वी वक्ता, हम श्रोतागण,
वो शब्द, अर्थ भरे,
जाने क्यूँ, निःशब्द करे!

नारायण ही जाने......

उनकी, बातों में कान्हा,
उनकी, शब्दों में कान्हा सा गाना, 
शायद, वो हैं राधा,
व्यथा, कहे सिर्फ आधा!

नारायण ही जाने......

जाने वो, क्षणिक सुख!
पर वो, भटके ना, उनके सम्मुख,
अनबुझ सी, प्यास,
या, प्रज्ज्वलित सी आस!

नारायण ही जाने......

हम तो ठहरे, अन्जाने,
नारायण ही जाने, वो क्या-क्या जाने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

रक्तरंजित बिसात

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कौन जाने, क्या हो अगले पल!
समतल सी, इक प्रवाह हो, 
या सुनामी सी हलचल!
अप्रत्याशित सी, इसकी हर बात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

प्राण फूंक दे या, ये हर ले प्राण!
ये राहें कितनी, हैं अंजान!
अति-रंजित सा दिवस,
या इक घात लगाए, बैठी ये रात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

जाल बिछाए, वक्त के ये मोहरे,
कब धुंध छँटे, कब कोहरे,
कब तक हो, संग-संग,
कब संग ले उड़े, इक झंझावात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

कोरोना, वक्त का धूमिल होना,
पल में, हाथों से खो देना,
हँसते-हँसते, रो देना,
रहस्यमयी दु:खदाई, ये हालात!

वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 18 April 2021

उभरता गजल

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

दैदीप्य सा, इक चेहरा, है वो,
सब, नूर कहते हैं जिसे,
पिघल कर, उतर आए जमीं पर,
चाँद कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

बड़ी ही, सुरीली सी सांझ ये,
सब, गीत कहते हैं जिसे,
जो, नज्म बनकर, गूंजे दिलों में, 
गजल कहते हैं, 
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

चह-चहाहट, या तेरी आहट,
कलरव, समझते हैं उसे,
सुरों की, इक लरजती रागिणी,
संगीत कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

मायूस ख्याल

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

उन पर, आ ही जाता है, रहम,
सो, चलाता हूँ कलम,
कागजों पर, 
टूट जाते है, सारे ही भरम,
बिखर जाते हैं,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

न जाने क्यूँ, कुछ बोलते नहीं!
क्यूँ लब, खोलते नहीं,
सिलते हैं ये,
बुनते हैं, सारे ही बवाल,
सिमट जाते है,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

क्या करे, बेजान से ये कागज!
नादान से, ये कागज,
ये कहे कैसे,
अधलिखे, हैं जो ख्याल,
मुकर जाते हैं, 
सवाल!

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)