वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!
कौन जाने, क्या हो अगले पल!
समतल सी, इक प्रवाह हो,
या सुनामी सी हलचल!
अप्रत्याशित सी, इसकी हर बात!
वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!
प्राण फूंक दे या, ये हर ले प्राण!
ये राहें कितनी, हैं अंजान!
अति-रंजित सा दिवस,
या इक घात लगाए, बैठी ये रात!
वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!
जाल बिछाए, वक्त के ये मोहरे,
कब धुंध छँटे, कब कोहरे,
कब तक हो, संग-संग,
कब संग ले उड़े, इक झंझावात!
वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!
कोरोना, वक्त का धूमिल होना,
पल में, हाथों से खो देना,
हँसते-हँसते, रो देना,
रहस्यमयी दु:खदाई, ये हालात!
वक्त की, ये रक्तरंजित बिसात,
शह दे या मात!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
अब तो हर वक्त संशय बरकरार है न जाने कब...
ReplyDeleteआभार आदरणीया
Deleteबहुत ही सुन्दर सटीक और सार्थक रचना
ReplyDeleteआभार आदरणीया
Deleteबहुत सुन्दर गीत।
ReplyDeleteविचारों का अच्छा सम्प्रेषण किया है
आपने इस रचना में।
आभार आदरणीय सर
Deleteसमसामयिक पंक्तियाँ,सुंदर सृजन।
ReplyDeleteशह हो मात अंत सुखद होगा।
सादर प्रणाम आदरणीय सर 🙏
आभार आँचल जी।।।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-4-21) को "श्वासें"(चर्चा अंक 4042) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
बात ठीक ही कही है आपने आदरणीय पुरुषोत्तम जी। हाल तो ऐसा ही है।
ReplyDeleteआभार आदरणीय जितेन्द्र जी
Deleteबहुत भयावह है ये सब । आज के वक़्त पर सटीक रचना ।
ReplyDeleteआभार आदरणीया ....
Deleteवर्तमान समय की विडम्बनाओं की पड़ताल करता कमाल का सृजन
ReplyDeleteमार्मिक रचना
आप हमेशा कुछ नया गढ़ते हैं
बधाई
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ज्योति खरे साहब। काफी दिनों बाद मेरे ब्लॉग पर पुनः वापसी हेतु आभारी हूँ आपका।
Deleteसामायिक विषय पर सहज प्रवाह लिए हृदय स्पर्शी रचना।
ReplyDeleteआज के हालात को कविता में समेटने का सार्थक प्रयास।
सुंदर सृजन।
आभार आदरणीया ...
Deleteवाह ..सशक्त सामयिक गीत
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीया गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी। हार्दिक स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर। ।।।
Deleteबहुत सुंदर और सटीक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआभार आदरणीया ....
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