Sunday 14 January 2018

मुख्तसर सी बात

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

जब से गए तुम रहबर,
न ली सुधि मेरी,
न भेजी तूने कोई भी खबर,
हुए तुम क्यूँ बेखबर?

तन्हा सजी ये महफिल,
विरान हुई राहें,
सजल ये नैन हुए,
तुम नैन क्यूँ फेर गए?

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

मुख्तसर से वो पल,
कैसे बीत गए?
बस अब याद मुझे हैं आते,
वो ही शामो-शहर!

तुम संग सजी महफिल,
मखमली राहें,
चमकते से दो नैन,
सिमटते से वो दिन रैन !

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

संग जीने के वो वादे,
मरने की कसमें,
साँसों का साँसों से जुड़कर,
न बिछड़ने की रश्में!

न मिल पाने की तड़प,
तुमसे ही झड़प,
बीतती सी वो घड़ी,
खन खन करती ये चूड़ी!

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

Saturday 13 January 2018

अलाव

रात भर जलती रही थी उसके मन की अलाव...

नंगे बच्चों की भूख, तड़प की पीड़ा,
माथे पे शिकन, आँखों में जलन, काँपता तन,
सुलगाती रही उस मन में इक अलाव....
न आया कोई भी सुधि लेने उस अलाव की...

ठिठुरती ठंढ़ मे, क्षणिक राहत को,
चौराहे पर भी जलाई गई थी इक अलाव,
ठहाकों की गूंज में डूबा था वो गाँव,
पर जलाती रही थी उसे, मन की वो अलाव ....

मन की अलाव भारी पड़ी थी ठंढ़ पर,
निकल पड़ा वो बेचारा काम की तलाश पर,
बच्चों के पेट की सुलगती वो अलाव,
जलाती रही ठंढ मे भी चिंगारी बन बनकर....

कुछ पैसे आए थे उसकी हाथों पर,
कम थे फिर भी वो, महंगाई के अलाव पर,
तनाव दे गई थी वो जलती अलाव,
आज भी न बुझनी थी मन की वो अलाव...

रात भर जलती रही, फिर उस मन की अलाव!
और, चौराहे पर भी जलती रही इक अलाव!

मकर संक्रंति

नवभाव, नव-चेतन ले आई, ये संक्रांति की वेला........

तिल-तिल प्रखर हो रही अब किरण,
उत्तरायण हुआ सूर्य निखरने लगा है आंगन,
न होंगे विस्तृत अब निराशा के दामन,
मिटेंगे अंधेरे, तिल-तिल घटेंगे क्लेश के पल,
हर्ष, उल्लास,नवोन्मेष उपजेंगे हर मन।

धनात्मकता सृजन हो रहा उपवन में,
मनोहारी दृश्य उभर आए हैं उजार से वन में,
खिली है कली, निराशा की टूटी है डाली,
तिल-तिल आशा का क्षितिज ले रहा विस्तार,
फैली है उम्मीद की किरण हर मन में।

नवप्रकाश ले आई, ये संक्रांति की वेला,
अंधियारे से फिर क्युँ,डर रहा मेरा मन अकेला,
ऐ मन तू भी चल, मकर रेखा के उस पार,
अंधेरों से निकल, प्रकाश के कण मन में उतार,
मशाल हाथों में ले, कर दे  उजियाला।

Friday 12 January 2018

वही पल

गूंजते से पल वही, कहते हैं मुझको चल कहीं.........

निर्बाध समय के, इस मौन बहती सी धार में,
वियावान में, घटाटोप से अंधकार में,
हिचकोले लेती, जीवन की कश्ती,
बलखाती सी, कभी डूबती, कभी तैरती,
बह रही थी कहीं, यूँ ही बिन पतवार के,
भँवर के तीव्र वार में, कोई पतवार थामे हाथ में,
मिल गए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

टूटा था सहसा, तभी मौन इक पल को,
संवाद कोई था मिला, इस मौन जीवन को,
जैसे दिशा मिल गई थी कश्ती को,
किनारा मिला था वियावान जीवन को,
प्रस्फुटित हुई, कहीं इक रौशनी की किरण,
लेकिन छल गई थी मेरी ये खुशी, उस भँवर को,
गुम हुए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

समय के गर्त से, अब गूंजते है पल वही,
निर्जन सी राह पर, कहते हैं मुझको चल कहीं,
दिशाहीन कश्ती न जाने कहाँ चली,
मौन है हर तरफ, इक आवाज है बस वही,
कांपते से बदन में जागती सिहरन वही
रुग्ण सी फिजाएँ, वही पिघलती ठंढ सी हवाएँ,
बह रहे थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

बहती सी मौन धार में, अब गूंजते से पल वही........

Sunday 7 January 2018

विप्रलब्धा

वो आएँगे, यह जान कर....
उस सूने मन ने की थी उत्सव की तैयारी,
आष्लेषित थी साँसे उनमें ही,
तकती थी ये आँखें, राहें उनकी ही,
खुद को ही थी वो हारी.....

रंग भरे थे उसने आँचल में,
दो नैन सजे थे, उनके गहरे से काजल में,
गालों पे लाली कुमकुम माथे में,
हाथों में कंगन, पायल सूने पैरों में,
डूबी वो खुद से खुद में....

लेकिन आई थी विपदा भारी,
छूटी थी आशा टूटा था वो मन अभिसारी,
न आ पाए थे वो, वादा करके भी,
सूखी थी वो आँखें, व्यथा सह कर भी,
गम मे डूबी थी वो बेचारी.....

वो विप्रलब्धा, सह गई व्यथा,
कह भी ना सकी, किसी से मन की कथा,
लाचार सी थी वो बेचारी सर्वथा,
मन का अभिसार जाना जिसको सदा,
उसने ही था मन को छला......

ढ़हते खंडहर सा टूटा था मन,
पूजा पश्चात्, जैसे मूरत का हुआ विसर्जन,
तैयारी यूँ ही व्यर्थ गई थी सारी,
दीदार बिना हुआ सारा श्रृंगार अधूरा,
नैनों में अब बूँद था भरा.....
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विप्रलब्धा
1. जिसका प्रिय अपने वचनानुसार मिलन स्थल पर न आया हो ऐसी नायिका
2. प्रिय द्वारा वचन भंग किए जाने पर दुःखी नायिका

विप्रलब्ध की व्युत्पत्ति है = वि+प्र+लभ्‌+क्त । इसका अर्थ है="ठगा गया, चोट पहुँचाया गया" वैसे यह नायिका विशेष के लिये ही प्रयुक्त होता है. वस्तुतः संस्कृत में वि और प्र उपसर्ग एक साथ किसी एक वस्तु को दूसरे से अलग करने के प्रसंग में आते हैं।

बिछड़े जो अब

अबकी जो बिछड़े, तो ख्वाबों में ही मिलेंगे कहीं..

शाख पर लिपटती बेलें यूँ ही कुछ कह गई,
ढलती रही सांझ ख्यालों में ही कहीं,
कोई भीनी सी हवा तन को छूकर थी गई,
दस्तक दबे पांव देकर गया था कोई,
ये सरसराहट सी हवाओं मे अब कैसी?
क्या है ये भरम? या है मेरा ख्वाब ये कोई?

आ मिल कहीं, सौदा ख्वाबों का हम करें यूँ ही ....

जिक्र करें, ये मन के भरम कब तक धरें..
मिल कर कहीं, हम यूँ ही बैठा करें,
कह लें वही, अबतक जो हम कह न सके,
मन ही मन यूँ तन्हा हम क्यूँ जलें?
कुछ खैरों खबर लें, मन की सबर लें,
ख्वाब से ख्वाब का, यूँ तुझ संग सौदा करें.....

यूँ ही लौट आएंगी, बँद होठों पे चहकती हँसी....

देखो ना! उस सांझ हलचल सी क्या हुई?
बेनूर सी रुत हुई, ये घड़ी, ये शाम भी,
ये सदाएँ मेरी, गुनगुना न फिर सकी कभी,
हृदय के तार, फिर न झंकृत हुई कभी,
ढलती रही हर शाम, फिर यूँ ही बेरंग सी,
अब जो गई शाम, फिर लौट न आएंगे कभी.....

अबकी जो बिछड़े, तो ख्वाबों में ही मिलेंगे कहीं.....

Sunday 31 December 2017

मेरा ही साया

वो नही कोई पराया, था वो बस मेरा ही साया.......

छाँव तनिक न जिसे रास आया,
कड़ी धूप में ही वो खिल खिलाया,
तन्हा मगर उसने खुद को पाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

रहा ढूंढता वो सदा मेरी ही काया,
मेरी ही सासों की धुन पर वो गाया,
पाँवों तले जिसने जीवन बिताया,
वो कोई गैर नहीं, था वो मेरा ही साया.......

किया उम्र भर जिसको पराया,
उसके बिना मैं कभी जी न पाया,
इर्द गिर्द मेरे वो सदा मंडराया,
वो कोई गैर नहीं, था वो मेरा ही साया.......

स्पर्श वो ही मेरा हृदय कर गया,
हाथों से जिसको कभी छू न पाया,
न ममता ने जिसको सहलाया,
वो! पराया नहीं,  था वो मेरा ही साया.......

आत्मा में अब वो मेरे समाया,
घड़ी अन्त का, जब निकट आया,
सिरहाने ही मैने उसको पाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

जब चिता पर गया मैं लिटाया,
मुझसे पहले वहाँ आया वो साया,
हौले से उसने भी सहलाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

Thursday 28 December 2017

अबकी बरस

इस बरस भी तुम न आए, मन ये भरमाए ......

सोच-सोच निंदिया न आए,
बैरी क्युँ भए तुम, दूर ही क्यूँ गए तुम?
वादा मिलन का, मुझसे क्युँ तोड़ गए तुम,
हुए तुम तो सच में पराए!
नैनों में ना ही ये निंदिया समाए,
ओ बैरी सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

भाल पे अब बिंदिया न भाए,
दर्पण में ये मुख अब मुझको चिढाए,
चूड़ियों की खनक, बैरन मुझको सताए,
बैठे हैं हम पलकें बिछाए,
हर आहट पे ये मन चौंक जाए,
क्यूँ भूले सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

पपीहा कोई क्यूँ चीख गाए?
हो किस हाल मे तुम, हिय घबराए?
हूक मन में उठे, तन  सूख-सूख जाये,
विरह मन को बींध जाए,
का करूँ मैं, धीर कैसे धरूँ मैं,
क्यूँ बिसारे सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

काश ये मन सम्भल जाए!
अबकी बरस सजन घर लौट आए!
छुपा के रख लूँ, बाहों मे कस लूँ उन्हें,
बांध लू आँचल से उनको,
फिर न जाने दूँ कसम देकर उन्हें,
काश! बैरी सजन, इस बरस घर लौट आए....

इस बरस भी तुम न आए, मन ये भरमाए ......