Sunday 17 January 2016

इंतजार प्यार का

जीवन के जिस मोड़ पे तन्हा छोड़ गए थे तुम,
देख लो आज भी उसी मोड़ पे तन्हा खड़ा हूँ!

दीवानगी मे मुझको जिस तरह भी चाहा तुमने,
मैं जिन्दगी को आज भी उसी तरह जी रहा हूँ !

कभी मूरत की तरह मुझको सजाया था तुमने,
प्यार मे उसी बुत की तरह अब मैं ढह रहा हूँ!

मेरी ज़िन्दगी में जीने की बस एक वजह हो तुम,
शिकायत मत करो कि मैं तुमसे दूर रह रहा हूँ!

चाहो तो मुझको आवाज देकर बुला लेना तुम,
इंतज़ार करता आज भी उसी मोड़ पे खड़ा हूँ!

शाम के स्वर

शाम के स्वर अब तक थके नही,
इन सुरमई लम्हों के कदम अभी रूके नहीं,
साधना के स्वरों से पुकारती ये तुम्हे।

ये लम्हे हैं सुनहरी चंपई शाम के,
गुजरते क्षितिज पर इस तरह,
जैसे सृष्टि के हर कण से,
मिलना चाहते क्षण भर ये।

तुम भी इनसे मिलने आ जाओ,
प्रीत की रीत वही तुम भी निभा जाओ।

ये संध्या है सुरमई मदहोशियों के,
अनथक छेड़ रहे सुर इस तरह,
जैसे धरा के कण कण मे,
भरना चाहते मीठे स्वर ये।

तुम भी धुन कुछ इनसे ले लो,
प्रीत के गीत वही तुम भी सुना जाओ।

साधना के स्वरों से रातों के तम हर जाओ ।

पिघलते शब्दों के नश्तर

पिघलते शब्दों के नश्तर,
स्वर वेदना के नासूर वाण बन,
छलनी कर जाते हृदय के प्रस्तर।

शब्दों मे होती इक कम्पन,
गुंजायमान करती वसुधा के मन,
जीवन की वीणा को ये छेड़ती निरंतर।

कम्पन गुम मेरे हृदय की,
शब्द वो पिघलते कहाँ अब मेरे मन,
ध्वनी के मधुर स्वर मिलते कहाँ परस्पर।

क्या कभी अब हँस पाऊँगा?
धुन हृदय प्रस्तर की क्या सुन पाऊँगा?
वेदना के वाण रह-रह चुभते हृदय पर।

पिघलते लम्हे

पिघलते लम्हों का बेचैन कारवाँ,
गुजरता रहा वक्त की आगोश से,
अरमाँ लिए दिल में हम देखते रहे खामोश से।

लम्हें फासलों से गुजरते रहे,
दिलों के बेजुबाँ अरमाँ पिघलते रहे,
आरजू थी गुनगुनाती पिघलती शाम की,
पिघलती सी रास्तों पे बस शाम ढ़लते रहे ।

पिघलते लम्हों का बेवश कारवाँ,
बस गुजरता गया कोहरों की ओट से,
हसरतें दिल मे लिए हम देखते रहे खामोश से।

कोहरों की धूंध मे ये चलते रहे,
बेवश जज्बातों के निशाँ पिघलते रहे,
पिघलती रही शाम हसरतों के जाम की,
पिघलते नयनों से बस आँसू निकलते रहे ।

पिघलते लम्हों का तन्हा कारवाँ,
बस गुजरता गया वक्त की आगोश से,
हसरतें दिल मे लिए हम देखते रहे खामोश से।

Saturday 16 January 2016

चिड़ियाँ का जीवन

उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?

चातुर नजरों से देखती इधर-उधर,
आज काम बहुत से होंगे करने,
आबोदाना को उड़ना होगा मीलों,
मिटेगी भूख किस दाने से?
चैन की नींद कहाँ पाऊंगी?

दूर डाल पे बैठी छोटी सी चिड़ियाँ सोंचती!

फिर घोंसले की करती फिकर,
किस डाल सुरक्षित रह पाऊँगी,
तिनके कहाँ सजाऊँगी,
बहेलियों की पैनी नजर से,
दूर कैसे रह पाऊँगी?

उस छोटी सी चिड़ियाँ को भविष्य का डर?

आनेवाली बारिश की फिकर,
आँधियों मे बिछड़ने का डर,
डाली टूट गई थी पिछली बार,
घौसले हो गए थे तितर बितर,
अन्डे कैसे बचाऊँगी?

उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?

विपरीत रेखाएँ

आज फिर गहराई से देखा हमनें हाथो को,
मध्य अवस्थित दो समानांतर रेखाओं को,
मेरा विवेक मजबूर हो गया पुनःविचार को,
मस्तिष्क व हृदय रेखा जाती विपरीत क्युँ?

शायद मष्तिष्क सोचता है हृदय के विपरीत,
मष्तिष्क का निर्णय विवेचनाओं पर आश्रित,
हृदय का निर्णय होता संवेदनाओं पर केन्द्रित,
दो विपरीत विचार-धाराएँ एक जगह स्थित!

दो विपरीत धाराएँ मिलके चलाती जीवन एक 
सामंजस्य द्वारा जीवन के निर्णय लेता अनेक,
तीसरी रेखा जीवन की चल पाती इनके विवेक,
रेखाओं का सम्मेलन बस करता मालिक एक!

सपनों का भ्रमजाल

सपनों का फैला भ्रम जाल,
देख मानव हो रहा निहाल,
अकल्पित भयंकर यह मकर जाल।

भ्रमजाल मे जकड़ता हर पल,
यथार्थ से दूर ले जाता पल पल,
विस्मित सपनों का प्रलय यह जाल।

सपना तो बस एक छलावा,
भांति भांति के मोहक छद्म दिखाता,
खुली आँखों मे मोह सा छलिया जाल।

सपनों का है अपना कर्म,
जन की आँखो मे बैठ निभाता धर्म,
तू भी कर्म कर अंत काल न रहे मलाल।

सरसों के फूल

सरसों के फूल
 लुभा गए मन को,
दूर-दूर तक,
धरा पर,
प्रीत बन,
पीली चादर फैला गए,
हरितिमा पर छा गए,
 लहलहा गए,
पीत रंग
मन को मेरे भा गए।

श्रृंगार
लुभावन
वसुधा को दे गए,
आच्छादित हुए
धरा के
अंग-अंग,
गोद भराई कर गए,
 मधु-रस की
मधुर धार,
भौरों को दे गए,
मुक्त सादगी
सरसों की
मन को हर गए।

कुछ पल
मैं भी संग बिताऊँ,
कोमलता
तनिक
स्पर्श मैं भी कर जाऊँ,
दामन में,
भर लूँ,
निमित्त हुए
चित मेरे विस्मित,
कर गए,
सरसों के फूल,
मेरे मन में बस गए।

कौन सी भाषा

मैं न जानूँ व्यथित मन की भाषा,
समझ सकूँ न नैनों की मूक भाषा,
व्यथा भावना दृष्टि की समझ से परे,
अभिलाषा की भाषा अब कौन पढ़े?

किस भाषा मे वेदना लिख गए तुम?
मन की पीड़ा व्यथा क्या कह गए तुम?
अंकित मानस-हृदय पर ये आड़े-टेढ़े,
वेदना पीड़ा की भाषा अब कौन पढ़े?

हृदय भावविहीन पाषाण हो चुका!
मन के भीतर का मानव सो चुका!
भावनाओं का साहित्य जटिल हो चुका!
भाव-संवेदना की भाषा अब कौन पढ़े?

Friday 15 January 2016

कौन रहा पुकार?

आह! है कौन वो जो छेड़़ जाती मन के तार?

कानों मे गूंजती एक पुकार,
रह रहकर सुनाई देती वही पुकार,
सम्बोधन नहीं होता किसी का उसमें,
फिर भी जाने क्यों होता एहसास
कोई पुकार रहा मुझे बार-बार!

आह! यह किसकी वेदना कर रही चित्कार?

हल्की सी भीनी सुगन्ध चली कहाँ से,
बढ़ती जाती सुगंध हवाओं के साथ,
पहचानी सी खुशबु पर आमंत्रण नहीं उसमें,
फिर भी जाने क्यों होता एहसास,
कोई बुला रहा मुझको उधर से बार-बार!

आह! यह किसकी खुशबु मुृझको रही पुकार?