Friday 5 February 2016

गुड्डे-गुड़िया की कहानी

सुनो सुनाऊँ तुमको एक कहानी,
गुड्डे-गुड़िया की एक जोड़ी थी सुन्दर सी,
मगन थे दोनों अपनी ही दुनियाँ मे,
संसार बसाई थी एक छोटी सी उसने,
किस्मत पे नाज था उन दोनों को,
मजबूत तिनकों से घर बनाई थी दोनों ने।

नन्हे नन्हे तीन फूल उग आए थे आँगन में,
बहार छा गई फिर उनके जीवन में,
कभी फूलों को सहलाते कभी पानी देते,
सुख देकर उनको दुःख उनका हर लेते,
देखते फिर इक दूजे को नाज से,
असीम सुख का अनुभव फिर दोनो कर लेते।

सुख के कांटे चूभे शूल से यम को,
सामना हुआ उनका क्रूर काल वैरागी से,
एक फूल खिलने से पहले ही मुरझाया,
अपनी क्रूर मनमानी काल ने दिखलाया,
फिर क्रूर ने उस सुन्दर गुड़िया को लीला,
टूटी जोड़ी, टूटे सपने, गुड्डा जीते जी मर गया।

जीवन तो जीना था अब भी उस गुड्डे को,
माला यादों की रखता बस हाथों मे अब वो,
चुपचाप ताकता बाग के शेष फूलों को,
सूख चुकी थी अब छोटी सी बगिया वो,
क्लांत मलिन आँखो से टुकटुक तकता वो
विधि का क्रूर विधान देखा अपनी आँखों से वो।

(दिनांक 01.02.2016 को मेरे प्रिय विनय भैया से ईश्वर ने भाभी को छीन लिया। बचपन से मैने उस खूबसूरत जोड़ी को निहारा है और छाँव महसूस भी की। उनके विछोह से आज मन भर आया है, एक संसार आज आँखों के सामने उजाड़ हुआ बिखरा पड़ा है। हे ईश्ववर, यह लीला क्यों? यह पूजा अधूरी क्यों? यह संगीत अधूरा क्यों?)

कर्मवीर की तकदीर

पर मै कहता रहा तू कर्मवीर बन तकदीर क्या कर लेगी!

तपिश उस खलिश की,
तसव्वुर उन सुलगते लम्हों का,
डसती रही ताउम्र नासूर बन मुझको,
जबकि मुझको भी था पता,
छल किया है तकदीर ने मेरी मुझसे ही।

पर मै कहता रहा तू कर्मवीर बन तकदीर क्या कर लेगी!

जलन उस छल की,
ताप उस तकदीर की संताप का,
छलती रही ताउम्र दीदार देकर मुझको,
जबकि मुझको भी था पता,
छल रही हैं तकदीर आज भी मुझको ही।

पर मै कहता रहा तू कर्मवीर बन तकदीर क्या कर लेगी!

लगन मेरे कर्मनिष्ठा की,
करती रही मान मेरे स्वाभिमान का,
छल न सकी तकदीर आत्मसम्मान को मेरे,
जबकि मुझको भी था पता,
वश नही चलता तकदीर पर किसीका कहीं।

पर मै कहता रहा तू कर्मवीर बन तकदीर क्या कर लेगी!

जीवन की हाला

यूँ तो पी है मैने भी हाला,
जीवन के सैकड़ों उन्मुक्त क्षण की प्याला,
मिली है खुमारी मुझको भी,
अनगिनत मस्त हाले के प्याले की।

पर मैं अब भी हूँ प्यासा,
कुछ और उन्मुक्त क्षणों के आहट का,
नहीं हुआ मन आश्वस्त अभी,
तुम दे दो जीवन के कुछ क्षण और अभी।

पी जाऊँ मैं जीवन विष भी,
मद प्याले की लबालब हाला के संग,
गरल जीवन का, छल सकेगा मुझको क्या,
खुमारी हाला की जब चढ़ जाएगी मुझपर भी।

लेकिन बदली है कुछ हाला भी,
उन्मुक्तता कहीं खोई इसकी दामन से,
छल रही ये जीवन को खुद गरल बनकर,
तुम हाला की प्याला वही फिर लाओ जीवन की।

मैं और मेरी संवेदना

मैं.......!
इच्छाओं से भरपूर इक शख्श हूँ मैं,
अपनी ही आशाओं से उद्वेलित अक्श हूँ मैं,
इंतजार मुझको इक मुक्कमल सुबह का,
मगर हर रात आने वाले चाँद से भी बेहद प्यार है!

मैं......!
वेदनाओं मे बंधा जीवन का अक्श हूँ मैं,
संसार की पीड़ा देख सर्वथा व्यथित शख्श हूँ मैं,
इंतजार मुझको इक उज्जवल जीवन का,
मगर जीवन की हर रंग से भी बेहद लगाव है!

मेरी नींद .................!
बेहद जरुरी है सेहत के लिए,
संतुलित सजग तीव्र मष्तिष्क के लिए!

मगर सपने .........!
नींद से भी ज्यादा तीमारदार,
सपना वेदना रहित सुखद संसार के लिए!

एक दिल, एक जाँ है मुझमे.....!

मैं.......!
एक ही शक्स हूँ मैं...भावुक, सहृदय कोमल, संवेदनशील।
फिर भी आईने में देखकर लगता है ....!
कितनी ही परछाइयों का मिश्रित अक्श हूँ मैं..........!

मैं मगन घन-व्योम प्रेम मे!

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

बादलों का नैसर्गिक धरा प्रेम,
आश्वस्त अन्तर्धान मैं मादकता मे घन की,
मुझको विश्वास उसकी चंचलता में,
चपल रहकर हर पल अविरल,
छाँव ठंढ़क की देता धरा को कम से कम दो पल!
मूक संसृति बादलों की हरते मन।

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

बादलों का गूँजित सृष्टि प्रेम,
गूँजते हैं कान मेरे जब-जब गूँचते हैं घन,
सृष्टि को विश्वास उसकी झंकृत गूँज मे,
आच्छादित घनन घनघोर अतिघन,
वृष्टि कर जल प्लावित करते धरा को कम से कम!
घनघोर गर्जन बादलों की हरते मन।

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

बादलों का आलोकित व्योम प्रेम,
धधकते हैं प्राण मेरे जब कड़कते हैं घन,
व्योम को विश्वास उसकी तड़ित वेदना में,
रह रहकर सिहर उठते घन उसपल,
जलकर मौन संताप दूर करते व्योम का कम से कम!
तड़प जलन बादलों की हरते मन।

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

Thursday 4 February 2016

चाहूँ जीवन समुज्जवल

मैं लघु तन झुलसाकर चाहूँ जीवन उज्जवल सम!

शलभ सा जीवन प्रीत ज्वाला संग,
कितना अतिरेकित कितना विषम!
ज्वाला का चुम्बन कर शलभ जल जाता ज्वाला संग,
दुःस्साह प्रेम का आलिंगन कितना विषम।

मैं लघु तन झुलसाकर चाहूँ जीवन उज्जवल सम!

बाती सा कोमल प्रीत दीपक संग,
कितना अतिरेकित कितना विषम,
प्रकाश भर राख बन जाता जल दीपक संग,
प्रीत संग जलते जाना कितना विषम।

मैं लघु तन झुलसाकर चाहूँ जीवन उज्जवल सम!

जलने मे ही सुख है जानता शलभ ये,
जल मिटने में ही सुख है जानती बाती ये,
तम पर विजय कर पाती बाती जलकर ज्वाला संग,
चिर सुख पाने को गरल पीना कितना विषम।

मैं लघु तन झुलसाकर चाहूँ जीवन उज्जवल सम!

क्या मिल पाएगा मुझको भी जीवन समुज्जवल सम?

साथ चलो दोस्तों

मैं शिकवा करूँ भी कैसे मीठी यादों से तेरी,
साथी  मेरी तन्हाई की एक बस याद ही तेरी
गुजरती हैं वक्त खामोशियों मे हिज्र की मेरी,
अंतहीन दर्द देती फिर सदायें यादों की तेरी।

सजदा उन भीनी यादों का जो साथ अब मेरे,
झुक जाती है नजर अब भी बस यादों मे तेरे,
किसी मोड़ पर अगर मिल गए जो तुम कहीं,
खिल उठेंगी तन्हाईयों मे मुझ संग यादें तेरी।

एक तन्हा बस हम ही नहीं जमाने मे दोस्तो,
तन्हाई तो है जिन्दा यहाँ हर दिलों में दोस्तो,
गुजरना हो गर दुनिया से जिन्दगी में दोस्तों,
तन्हाई में किसी के साथ चलते चलो दोस्तों।

दो नैन

चंद अल्फाज निकल गए तारीफ में आपकी,
 मचले हैं शबनमी लहर सुर्ख होठों पे आपकी,
शुरूर बन के छा गई नूर-ए-चांदनी हर तरफ,
बदल गई है रुत की मस्त रवानियाँ हर तरफ।

शर्मों हया का परदा उतरा है चाँदनी की नूर से,
बेखबर मचल रहे यूँ जज्बात दिलों की तीर से,
चाहुँ चुरा लूँ चँद शबनम बंद होठों से आपकी,
देखता रहूँ झुकी पलकों में ढ़ली हया आपकी।

आँखें दे गईं हैं अब पयाम जिन्दगी की नूर के,
कजरारे नैन बरबस तक रहे आस में हुजूर के,
तारीफ करता रहूँ मैं इन दो नैनों की आपकी,
उम्र मै गुजार दूँ तकते इन दो नैनों मे आपकी।

Wednesday 3 February 2016

निज भूल

सन्निकट देख एकाकीपन,
सुनके रात्रितम के कठोर स्वर,
महसूस कुृछ हो रहा मन को।

इक मूरत थी मेरे हाथों मे,
सुन्दर, कोमल और प्रखर,
निःश्वास भरती थी वो रंग कई,
मेरे सूने एकाकीपन में।

कहीं छूटा है हाथों से मेरे,
या खुद ही टूटा उधेरबुन में मेरे,
इक मूरत थी जो मेरे हाथों मे।

मैं अग्यानी समझ न पाया,
कोमलता उसकी परख न पाया,
स्वार्थ मेरा वो रूठा मुझसे।

निज भूल की ही परिणति शायद,
स्नेह अमृत का वो मधुर प्याला,
खुद ही टूटा मेरे हाथों से।

काया प्रेम

क्या तू सिर्फ उस काया से ही प्रेम करता?

बस निज शरीर त्यागा है उसने,
साथ अब भी तेरे मन मे वो, 
प्राणों की सासों की हर लय मे वों, 
यादों की हर उस क्षण में वो।

फिर अश्रु की अनवरत धार क्युँ?

असंख्य क्षण उस काया ने संग बांटे,
पल जितने भी झोली मे थे उसके,
हर पल साथ उसने तेरे काटे,
सांसों की लय तेरी ही दामन में छूटे।

फिर कामना तू अब क्या करता?

क्या तू सिर्फ उस काया से ही प्रेम करता?