Sunday 14 February 2016

"अविनाशी बंधन"

(पूजनीय नाना नानी...की मोहक स्मृति में समर्पित)

स्मृति पटल पर अंकित वो बनकर एहसास,
अविनाशी मानस पटल मे जो, वो अविनाश,
विनाश न हो जग में जिसका, वो अविनाश,
बांधता "अविनाशी बंधन" में, वो अविनाश!

अभिमान वो हमारा उनसे कुल की पहचान,
अधिष्ठाता मर्यादा का, सत्कर्मो की वो खान,
निष्ठाकर्म, लग्नकर्म, अनुशासन का वो प्रेमी,
वो अविनाश, हम सब की आन, बान, शान।

कितने ही दूरदूर हों इनकी लड़ियों के मोती,
कसक एक दूजे की पल पल दिल में बढ़ती,
शरुआत हर सुबह उनकी यादों से ही होती,
उनकी स्मृति की क्षणों के संग शाम बीतती।

प्रार्थना करूँ हर पल उस अविनाशी ईश्वर से,
बढ़ता रहे कुलवृक्ष निकलती रहे नई कोपलें,
निरंतर बढ़ती रहे मानमर्यादा कुल की हमसे,
गौरवांवित हों हम महिमा-मंडित अविनाश।

अभिलाषा पल की

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इक पल में।

चाह अनन्त पलते इस मन में, 
घड़ियाँ बस पल दो पल जीवन में,
चाह सपनों की हसीन लड़ियों से, 
सजाता जीवन की घड़ियों को संग तेरे।

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इस पल में।

आज मोहक इस वेला में,
सुधि फिर लेती मन में इक आशा,
अरमान कई सजते इस तन मन में,
जीवन संध्या प्रहर पलती कैसी अभिलाषा?

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इक पल में।

डूब रहा मन अनचाही चाहों में,
सुख सपनों के नगरी की प्रत्याशा,
झंकृत हो रहा अनगिनत तार मन में,
जीवन की इस वेला में ये कैसी अभिलाषा?

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लूँ इक पल में।

Saturday 13 February 2016

मूक जेहन

मूक जेहन वाणी विहीन,
भाषा जेहन की आज अक्षरहीन,
परछाईयों मे घिरा, परछाईयों से होता व्याकुल।

परछाईं एक सदियों से जेहन में,
अंगड़़ाई लेती मृदुल पंखुड़ी बन।

मिला जीवन मे बस दो पल वो,
यादें जीवन भर की दे गया वो।
मृदुल स्नेह की चंद बातो में ही,
सौदा उम्र भर का कर गया वो।

जेहन की गहराई मे शामिल वो,
स्मृति की छाँव पाकर रहता वो।

अंकित स्मृति पटल पर अब वो,
मन उपवन की वादी मे अब वो,
जेहन की स्मृतिगृह मे रहता वो,
मंद-मंद सासों में मदमाता। वो।

यादों की परछाईयों मे घिरा जेहन,
स्मृति स्नेह में रम व्याकुल अब वो।

कहती भी क्या वाणी विहीन अक्षरहीन भाषा उसकी?
 मूक जेहन आज भी वाणी विहीन,
भाषा जेहन की आज अब भी अक्षरहीन,
परछाईयों मे घिरा, परछाईयों से ही व्याकुल जेहन।

आँखों का भरम


जानता हूँ तुमको जनमों से, तुम जानो या न जानो।

कई जन्मो पहले तुम मिले थे मुझको,
हम बिछड़े, फिर मिले हम, दुनिया से गुजरे, 
युग बीते, जन्म बदले, शक्ल बदले,
लगती ये बात पर आजकल की ही मुझको।

जानता हूँ कई जनमों से तुम्हे, तुम मानो या न मानो।

डोर कैसी जो खीचती तेरी ओर मुझको,
बिछड़े जन्मों पहले, फिर मिले हो तुम मुझको
आँखों में ये भरम कैसी, जो शक्ल बदले?
जन्मों-जन्मो से मिलते रहे तुम युंही मुझको।

जनमों जनमों का ये बंधन, तुम मानो या न मानो।

संध्या प्रेम

संध्या दिन की बाहों में अटकी सी,
जाने की विवश रुकने की चिन्ता में भटकी सी,
मंद पवन रोकती राहें लट सहलाती संध्या की।

संध्या की सासें प्रीत मे अटकी सी,
धीमी धवल मद्धिम रौशन राहों मे भटकी सी,
चंचला रात्रि संध्या प्रेम में डूबी मदमाई सी।

संध्या स्वप्न सम सुंदर चटकी सी,
अब डूब रही रात की आगोश में मतवाली सी,
रूप-मधु रात्रि की संध्याप्रीत मे निखरी सी।

स्वर नए गीत के गा

धीर रख! स्वर नए गीत के गा, चल मेरे साथ अब।

रहता था आसमाँ पर एक तारा यही कहीं,
गुजरा था टूट कर एक तारा कभी वहीं,
मिलते नही वहाँ उनकी कदमों के निशान अब,
रौशनी है प्रखर, पर दिखती नही राह अब।

भटक रहे हैं हम किन रास्तों पे अब?
दिखते नही दूर तक मंजिलों के निशान अब,
अंतहीन रास्तों मे भटका है अब कारवाँ,
बिछड़ी हुई हैं मंजिले, भटकी हुई सी राह अब।

बेसुरी लय सी रास्तों के गीत सब,
बजती नही धुन कोई भटकी हुई राहों में अब,
आरोह के सातों स्वर हों रहे अवरुद्ध अब,
धीर रख! स्वर नए गीत के गा, चल मेरे साथ अब।

सरस्वती वंदन

सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने।
विद्यारूपे विशालाक्षी विद्यां देहि नमोस्तुते।

सरस्वती  मंत्र 
प्रथमं भारती नाम द्वितीयं तु सरस्वती l 
तृतीयं शारदा देवी चतुर्थ हंसवाहिनी l
 पंचम जगतीख्याता षष्ठं   माहेशवरी तथा l 
सप्तमं तु कौमारी अष्टमं ब्रह्माचारिणी  l 
नवमं विद्याधात्रीनि दशमं वरदायिनी l 
एकादशं रूद्रघंटा द्वादशं भुवनेश्वरी l 
एतानि द्वादशो नामामि य: पठेच्छ्रुणयादपि l 
नच  विध्न भवं तस्य मंत्र सिद्धिकर तथा l

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृताया। वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभि र्देवैः सदा वन्दिता । 
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

(जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं जिनके हाथ में वीणादण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूरण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥)

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्हस्ते 
स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्वन्दे 
तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥2॥

(शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान् बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥