Saturday 18 June 2016

धीरज

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुझमें इतना धीरज.........
कि यूँ ही तुम चलते रहो उम्र भर साथ,
बिन आशा, बिन आकांक्षा, बिन अभिलाषा,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
तुम सब झूठा हो जाने दो कहा-सुना,
कहना-सुनना क्या बस देखो इक सपना,
छल जाने दो उर को बस, रहो निराश उदास,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
अब उठे भी कहाँ से प्यार की बात,
असमंजस हों कदम-कदम पर उर में जब,
इस मन के एकाकी तारे को दो बस यूँ उछाल,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुममें इतना धीरज.........

प्रीतम लघु जीवन के

रिमझिम सावन से वो जैसे नव-बूँदें इस मधुवन के।

खिलकर हँसते वो जैसे नव-पात पीपल के,
कोमल तन के वो जैसे नव-कोपल सेमल के,
सहिष्णु मन के वो जैसे नव-आश दुल्हन के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-चराग इस लघु जीवन के।

निश्छल मूरत सी वो जैसे नव-आभा देवी के,
कुम्हलाई सिमटी वो जैसे नव-लज्जा लाजवन्ती के,
इठलाती चलती वो जैसे नव-नृत्य हों मयूरी के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-विहान इस लघु जीवन के।

भिगोए तन को वो जैसे नव-घटाएँ बादल के,
कानों में मिश्री घोले वो जैसे नव-मिठास मध के,
आँखों में रहते वो जैसे नव-प्रतिमा मंदिर के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-प्राण इस लघु जीवन के।

रिमझिम सावन से वो जैसे नव-बूँदें इस मधुवन के।

Tuesday 14 June 2016

वो तस्वीर

बनती-बिगरती बादलों में उलझी सी इक तस्वीर,

हर क्षण रंग रूप बदलती वो तस्वीर,
पल पल दृग को वो छलती,
मनमोहक भावों से वो मन को हरती,
खुली जटाओं मे बादल की कहीं गुम हो जाती,

बरसती-बिखरती बादलों में बिखरी सी वो तस्वीर,

आकाश में फिर उभरती वो तस्वीर,
बादलों संग अठखेलियाँ करती,
चंचल सी स्वच्छंद विचरती वो तस्वीर,
भावप्रवण मन को कर खुद भावविहीन हो जाती,

जीवन के कितने ही किस्से कह जाती वो तस्वीर,

निःस्वार्थ जीवन जीती वो तस्वीर,
कुछ पल जग के दुख हर लेती,
आँखों में सपने जीने के भरती वो तस्वीर,
कर्मों की राह पर चलती फना हर बार वो होती,

कर्मपथ पर चलना सिखाती उलझी सी वो तस्वीर।

Monday 13 June 2016

दिल दुखे न कभी उनका

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

लेकर उनकी हाथों को अपनी हाथों में,
महसूस उन नब्जों की सिहरन को हम करते हैं,
धड़कनें नाजुक सी धड़कती है सीने में,
उसके धड़कन की आवर्तों को चलो गिनते हैं,

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

सागर नीले गहरे कितने हैं उन आँखों में,
उस नील-समुन्दर की गहराई में हम उतरते हैं,
स्नेहमई नीर बहते हैं उनकी आँखों से,
स्नेह के उन मोतियों से चलो दामन भरते हैं,

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

थाली पूजा की सजाई है उसने हाथों में,
श्रद्धा के फूलों से हम उस थाली को भरते हैं,
माँग को सजाया है उसने कुमकुम से,
सिन्दूर रंगी उस मांग को चलो तारों से भरते हैं,

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

नुकीले काटें कितने ही हैं उनके दामन में,
ममतामई उस दामन को हम फूलों से भरते हैं,
कदम-कदम पर धोखे ही खाए हैं उसने,
विश्वास के अंतहीन कदम चलो अब संग भरते हैं,

दिल दुखे न कभी उनका अब, चलो हम यूँ करते हैं.....

Sunday 12 June 2016

छवि तुम्हारी

छवि लिए कुछ तारों सी उर में तुम हो समाए,
पलकों में, प्राणों में स्मृति बन कर तुम हो आए.....

संचित कर लूँ मैं चंचलता इन नैनों की नैनों में,
महसूस करूँ मैं अरूणोदय तेरे चेहरे की आभा में,
देखूँ मैं रजनी की तम सी परछाई तेरे ही जूड़े में,

स्वप्नमय आभा लिए सपनों में तुम हो समाए,
नींदों मे, ख्वाबो में जागृति बन कर तुम्ही हो छाए ....

संचित कर लूँ मैं हाला तेरे अधरों की प्याली में,
महसूस करूँ मैं रंग जीवन के तेरे नैनों की लाली में,
देखूँ मैं ख्वाब सुनहरे तेरे आँचल की हरियाली में,

मधुर राग कोयल की सपनों मे तुमने ही गाए,
स्वर में, काया में विस्मित छाया सी तुम गहराए....,

Wednesday 8 June 2016

सूखते रिश्ते

बदलते मौसम की बयार में सूख रहे हैं ये रिश्ते भी...,

कुम्हलाए हैं अब रिश्तों के नाजुक फूल,
जज्बातों की गर्म हवाओं में जलकर,
बदलते मौसम की अनचाही आँधी मे झूलकर,
एहसासों के जमीं पर बिखरे हैं अब धूल ही धूल।

फफूँद उग आए हैं रिश्तों की क्यारी में,
सुखे है यहाँ सभी भावनाओं के फूल,
बिखर चुके पंख कोमल सी कल्पनाओं के,
स्वतः पूर्णविराम लगे हैं जीवन की आशाओं पर।

कशिश बस एक बाकी है उन रिश्तों की,
कभी खुश्बु सी आती है उन फूलों की,
खिलकर बिखरे थे जो मन की इस क्यारी में,
अब कड़वाहट बाँकी है उन रिश्तों की फुलवारी में।

दरारें हैं अब कैसी रिश्तों की इस गाँठ में,
क्युँ अहम इंसानों के भारी हैं रिश्तों पर,
तृष्णा, लालसा, अहम, अभिलाषा हावी संबंधों पर,
कुठाराघात करते रहे वो दिल की लचीली दीवारों पर।

बदलते एहसासों के साथ में टूट रहे हैं ये रिश्ते भी...,

प्रशस्त प्रखर मंजिल

क्षितिज को निहार तू, विस्तृत जरा आयाम कर,
विशाल सोंच को बना, मन की गगन का विस्तार कर,
प्रतिभा की चाँदनी से, आसमाँ में प्रकाश भर,
क्षितिज की आगोश में, मंजिल का तू विस्तार कर।

मंजिलों से आगे, कितने ही मुकाम हैं बाँकी,
अभी तो जिन्दगी के, यहाँ किस्से तमाम हैं बाँकी,
हसरतों के पंखों को, तू जरा फैला कर देख,
इन बादलों से उपर, अभी कई आसमाँ हैं बाँकी।

यह नहीं मंजिल तेरी, प्रहर है यह विराम की,
ठहर इक पल जरा, मंजिल प्रशस्त कर अपनेे मार्ग की,
कर्म की लाठी हाथों मे ले, निरस्त तू बाधाओं को कर,
दिखेगी तुझको राह नई, मंजिलें हो जाएंगी प्रखर।

विश्राम तो बस मौत है, गतिशील हैं राहें यहाँ,
मंजिलों से बेखबर, जीवन की अनगिनत चाहें यहाँ,
कुशाग्र प्रखर रौशनी में, राह तू खुद अपनी बना,
इन मंजिलों के आगे कहीं, तू छोड़ जा अपने निशां।