तू जाए तो, ये साल बिसारूँ!
हाल सम्हालूँ, बिगरे हालात बना लूँ!
तेरे होने का ही तो, बस, इक रोना था!
संग होकर भी, तू, संग ना था!
करना ही क्या था, जब कोरोना था!
अपनी दामन के काँटे, सब तुमने बाँटे!
सपन सलोने, हम कैसे पाते!
अब कुछ बाकी है क्या, जाते-जाते!
निर्दयी सा होकर, जीवन से तूने खेला!
गुम था जैसे, जीवन का मेला!
सहमा-सहमा, खुशियों का हर वेला!
कह दो, कैसे भूलूँ, ऐ बीता साल, तुझे!
कैद रखूँ, तुझको पिंजड़े में!
या, तुझको आजाद करूँ, जेहन से!
लेकिन, तूने तो जैसे, छेड़ा इक रण है!
याद रहे, अन्तिम ये क्षण है!
जंग में तेरे आगे, भारी ये जीवन है।
कितनी ही बाधाएं, लांघी है मानव ने,
कितने प्रलय, देखे हैं इसने,
जिन्दा हैं फिर भी, आँखों में सपने!
तू तकता किसकी राह, ऐ अन्तिम माह!
तू जाए तो, ये साल बिसारूँ!
हाल सम्हालूँ, बिगरे हालात बना लूँ!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 01 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया दी
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय
Deleteसुंदर, आशाओं पर ही जीवन टिका है।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय मीना जी।
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ओंकार जी
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