ऋतुमर्दन ही होना था, इक दिन तेरा,
ऋतुओं में ही, खोना था,
ऋतुओं पर, ना करना था यूँ एतबार,
ऋतु पालक, ऋतु संहारक,
ऋतुओं से, रखना था, विराग जरा!
अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!
डाली पर पनपे, यूँ डाली से ही छूटे!
बिखरे, यह कैसी, इति!
व्यक्त और मुखर, ऋतुओं से बेहतर,
अभिव्यक्ति ही था कारण,
मौसमों में, रहना था अव्यक्त जरा!
अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!
निखर आए, तेरे अंग, ऋतुओं संग,
यूँ, नजरों में, चढ़ आए,
ऋतुओं संग, पनपता, अनुराग तेरा,
शायद, अखरा हो उनको,
डाली को करना था, विश्वास जरा!
अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत सुन्दर गीत।
ReplyDeleteचैत्र नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।
आभारी हूँ महोदय। बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर रचना, नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं, जय माता दी प्रणाम
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया ज्योति जी।
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