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Sunday, 14 January 2024

कुहासे

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द हुई हवा,
हर ओर, जम रही ये दिशा,
चल रही, सर्द लहर,
जर्द ये कुहासे!

सफर, अब राहतों का,
तू थम जरा,
पल भर को, तू जम जरा,
ले आया, नव-विहान,
जर्द ये कुहासे!

जम चुका, ये आंगना,
ज्यूं भर रहा,
नव-संकल्प, नव-कल्पना,
रुख ही, वे बदल गईं,
जर्द से कुहासे!

लक्ष्य है, जरा धूमिल,
धूंध है भरा,
बस खुद पर, रख यकीन,
कुछ असर दिखाएगी,
जर्द ये कुहासे!

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द अब हवा,
सर्द हो चली, गर्म वो दिशा,
नव प्रवाह, भर गई, 
जर्द ये कुहासे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 22 December 2021

चादर

किसने बिछा दी, एक कोहरे की, चादर?
और तान दी, उस पर, जरा सी धूप,
सिकुड़ता हुआ, वक्त का रुका ये लम्हा,
कांपता सा, बदन लिए,
भला, जाए किधर!

बस, सोचता रहा, खुद को खोजता रहा!
कुरेदता रहा, वो कोहरा सा चादर,
कि, छू ले, वो धुंधली धूप जरा आकर,
जमा सा, ये बंधा लम्हा,
थोड़ा, जाए बिखर!

मगर, वो धूप, बदल कर, कितने ही रूप!
हँसता रहा, चादरों में सिमट कर,
बीतता रहा, वक्त संग, बंधा हर लम्हा,
मींच कर, खुली पलकें,
जागा, वो रात भर!

किसने बिछा दी, एक कोहरे की, चादर?
और जगा दी, अजीब सी कशिश,
अन्दर ही अन्दर, जगी सी इक चुभन,
बहकी-बहकी ये पवन,
अब, जाए किधर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 27 May 2018

क्या है ख्वाब ये

ये हकीकत है कोई, या है बस इक ख्वाब ये?

इक धुंधलाती सी परछाईं,
मद्धम सी गूंजती कोई मधुर आवाज,
छुन-छुन पायलों की धुन,
चूड़ियों की चनकती खनखनाहट,
करीब से छूकर गुजरती कोई पवन,
मदहोश करती वही खुश्बू...
है ये कोई वहम या फिर कोई जादू!
या है बस इक ख्वाब ये?

कही उठ रहा है धुंध कोई,
जैसे बिखेरा है किसी ने आँचल कहीं,
या नेह का है ये निमंत्रण,
या मन को लुभा रहा है कोई युं ही!
बज रही हो जैसे कोई अनसुनी सरगम,
गुनगुनाने लगी हो हवाएँ...
है ये कोई भरम या कहीं अपना कोई!
या है बस इक ख्वाब ये?

कोई चुपके से कहे, ऐ सुन!
मद्धिम सी बजने लगी फिर वही धुन,
मैं मूकद्रष्टा सा खोलूं नयन,
रोककर साँसें गिनूं दिल की धड़कन,
भटकता फिरूं मैं, जैसे आवारा बादल,
लिए पहलू में आँचल कोई...
है ये कोई वहम या है हमारा कोई!
या है बस इक ख्वाब ये?

तो फिर ये इशारे हैं किसके,
आसमान पर ये सारे तारे हैं किसके,
भीगा सा है क्यूं ये गगन,
चटक कर खिली है क्युं ये कलियां,
फूलों के अंग-अंग क्यूं निखरे है आज?
कोयल ने क्यूं छेड़ी है तान....
है ये कोई भरम या है कोई न कोई!
या है बस इक ख्वाब ये?

ये हकीकत है कोई, या है बस इक ख्वाब ये?

Thursday, 1 September 2016

कसक

सिराहने तले दबी मिली कुछ धुंधली सी यादें,
दब चुकी थी वो समय की तहों में,
परत धूल की जम गई थी उन गुजरे लम्हों में,
अक्सर वो झांकता था सिराहने तले से,
कसक ये कैसी दे गई वो भूली-बिसरी सी बातें ....

वो हवाओं में टहनियों का झूल जाना,
उन बलखाती शाखों को देख सब भूल जाना,
लाज के घूंघट लिए वो खिलती सी कलियाॅ,
मुस्कुराते से लम्हों में घुलती वो मिश्री सी बतियाॅ,
कसक कितने ही साथ लाईं वो धुंधली सी यादें .....

जैसे फेंका हो कंकड़ सधे हाथों से किसी ने,
ठहरी हुई झील सी इस शान्त मन में,
वलय कितने ही यादों के अब लगे हैं बिखरने,
वो तस्वीर धुंधली सी झिलमिलाने लगी फिर मन में ,
कसक फिर से जगी है, पर है अब कहाॅ वो बातें ......

पलटे नहीं जाएंगे अब मुझसे फिर वो सिराहने,
अब लौट कर न आना ऐ धुंथली सी यादें,
तू कभी मुड़कर न आना फिर इस झील में नहाने,
पड़ा रह सिराहने तले, तू यूॅ ही धूल की तहों में,
कसक अब न फिर जगाना,  तू ऐ गुजरी सी यादें .....