Thursday, 28 April 2016

अपरिचित अपना सा

परिचित ही था मेरा वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

यह कैसा परिचय, एक अपरिचित शख्स से,
ओझल है जो अबतक परिचय की नजरों से,
कल्पना की सतरंगी घोड़ों पर चढ़ आता वो,
परिचय की किन डोरों से मन को बांधता वो।

परिचित लगता अब वो, अपरिचित मुझको कब था वो!

हम कहते है जिसे परिचय, क्या सच में है वो,
या प्रतिविम्ब है इक, या बस इक छलावा वो,
अपरिचित सा जब भी कोई इस जीवन में हो,
प्रश्न अनेंकों मन में, उठने लगते न जाने क्यों।

परिचित होने से पहले, अपरिचित से लगते क्युँ वो!

कल्पना हो या छलावा, मन को है प्यारा वो,
अन-सुने गीत यादों में, हर पल गनुगुनाता वो,
अनुराग स्पर्श के, कल्पनाओं में अलापता वो,
जन्मों का ये परिचय, अपरिचित कब था वो।

परिचित सदियों से वो, अपरिचित मुझको  कब था वो!

Wednesday, 27 April 2016

कहता है विवेक मेरा

कहता है हृदय मेरा, चल ख्वाहिशों का मुँह मोड़ दे तू।

तमन्नाओं की महफिल फिर जगमगाई है कहीं,
कहता है मन,
गीत कोई अधूरा सा तू गाता ले चल,
रस्मों की दम घोंटती दीवारों से,
तू बाहर निकल आ चल।

अधूरी ख्वाहिशों के शहर मे तमन्ना जागी है फिर,
कहता है दिल,
परिदें ख्वाहिशों के उड़ा ले तू भी चल,
छुपी है जो बात अबतक दिल मे,
कह दे तू भी आ चल।

महफिल ख्वाहिशों की ये, तमन्नाओं को पीने दे फिर,
कहता है विवेक,
मैं ना निकलुंगा आदर्शों की लक्ष्मन रेखा से,
तमन्ना मेरी पीकर भटके क्युँ,
चल ख्वाहिशों का मुँह मोड़ दे तू।

कहता है हृदय मेरा, विवेक की अनदेखी ना कर तू।

वो बेपरवाह

वो बेपरवाह,
सासों की लय जुड़ी है जिन संग,
गुजरती है उनकी यादें,
हर पल आती जाती इन सासों के संग।

वो बेपरवाह,
बस छूकर निकल जाते है वो,
हृदय की बेजार तारों को,
समझा है कब उसने हृदय की धड़कनो को।

वो बेपरवाह,
अपनी ही धुन मे रहता है बस वो,
परवाह नही तनिक भर उसको,
पर कहते है वो प्यार तुम्ही से है मुझको।

वो बेपरवाह,
हृदय की जर्जर तारो से खेले वो,
मन की अनसूनी कर दे वो,
भावनाओं के कोमल धागों को छेड़े वो।

वो बेपरवाह,
टूट टूट कर बिखरा है अब ये मन,
बेपरवाह वो कहता है धड़कन,
बंजारा सा फिरता अब व्याकुल बेचारा मन।

वो बेपरवाह,
झाक लेती गर हृदय के प्रस्तर में वो,
सुन लेती गर सासों की लय वो,
जीवन के लम्हों से लापरवाह ना होते वो।

वो बेपरवाह,
ललाट पर बिंदियों की चमकती कतारें होती,
सिन्दुरी मांग अबरख सी निखर उठती,
सुन्दर सी मोहक तस्वीर इस धड़कन में भी बसती।

व्यस्त जिन्दगानी

व्यस्त लम्हे, हकीकत हैं ये जीवन के,
पल भर को फुर्सत नही साँसें लेने की चैन के,
रफ्तार से घूम़ती हैं, ये पहिए जिन्दगी के,
जरूरतों के आगे पिसती है, जरूरत जिन्दगानी के।

कब रुके हम, कब साँसों को झकझोरा,
जाने किन राहों पर हमने खुद को ही रख छोड़ा,
खुद से ही पूछते है हम कभी खुद का पता,
व्यस्तताओं के आगे विवश, हमारी आवश्यकता।

शून्य संग्याहीन हो चुके मन के भाव सारे,
निर्णय के दोराहों पर जाने कितने ही पल गुजारे,
हारी है चाह मन की असंख्य बार जीवन में,
भौतिकता के आगे हरबार टूटे हैं घर कल्पनाओं के।

कोमलता हंदय की दबी व्यस्तताओं में,
खूबसूरती लम्हो की रहती अनदेखी वर्जनाओं में,
जज्बातों के घरौंदे जलते जीवन की भट्ठी में,
एहसासों के राख पर ही महल बनते जिन्दगानी के।

तन्द्रा भंग हुई अब व्यस्त लम्हों की मजार पर,
कशिश आह भरी दिल में, रंजिश उन गुजरे लम्हों पर
आँसू छलके हैं नैनों में, हृदय हो रहा बेजार पर,
गुजरे वक्त के आगे विवश, बैठा जज्बातो के ढ़ेर पर।

Tuesday, 26 April 2016

ऐ मन तू सपने ही देख

ऐ मन, तू बस सपने ही देखता रह निरंतर.......,

तेरी भ्रम की दुनियाँ ही है अच्छी,
तू नहीं जानता सत्य मे है कितनी पीड़ा,
सत्य से अंजान तेरी अपनी ही है इक दुनिया,
जहाँ दु:ख का बोध सर्वथा नही,
दुःख हो भी तो, हो बस सपनों जैसे ही क्षणभंगूर।

ऐ मन, तू बस सपने ही देखता रह निरंतर......

सपनों मे तेरे क्या-क्या दिख जाता है,
बेगानों मे भी कोई अपना सा लग जाता है,
कष्ट-विषाद के कण हो जाते हैे धुमिल,
ऐ मन, इन क्षणिक एहसासों को बांधे रख तू खुद में,
ताकि मै भी कर पाऊँ सुख बोध कुछ इनके पल भर।

ऐ मन, तू बस सपने ही देखता रह निरंतर........

काश, कभी टूटते ना मन के ये सपने,
इन्सानों के मन मे हरपल फूटते नए इक सपने,
गम के इन अंकुरों से होते सदा हम अंजाने,
विछोह विषाद के ये पल जीवन से होते बेगाने,
हर दिल में बहते वसुधैव कुटुम्बकम के ही बस झरने।

ऐ मन, तू बस सपने ही देखता रह निरंतर........

Monday, 25 April 2016

वो मेरा गाँव

वो मेरा गाँव!
अंजाना सा क्युँ लगता है अब?
बेगाने हो चले हैं सब,
अंजाना सा लगता है वो अब,
इस मन मंदिर मे ही कही,
रहता था मेरा वो रब,
बिसरे है सब, बिसरा मेरा वो रब,
बिछड़ा है मेरा मन,
कही भीड़ मे ही अब,
वो गाँव! मेरा नहीं वो अब................!

वो मेरा गाँव!
अंजानों की बस्ती है अब,
कहने को अपने पर बेगाने हैं सब,
अंजाना मेरा मन अपनों में अब,
कहता है मेरा ये मन,
चल एे दिल, कही दूर चल अब,
सपने तेरे हो जहाँ,
कोई मन का मीत तेरा हो जहाँ,
छोटी सी ही हो दुनियाँ,
पर कोई तेरा अपना तो हो वहाँ,
वो गाँव! अब मेरा है वो कहाँ................?

वो मेरा गाँव?
अब कौन दे तुझको...?.......
झिलमिल आँचल की छाँव,
ममता की मीठी सी थपकी,
और स्नेह की दुलारी सी मुस्कान,
गाँव अब वो मेरा नहीं,
वो मेरे सपनों का अब रैन बसेरा नहीं,
वहाँ इन्तजार मेरा नहीं,
वो गाँव की पीपल अब देती नही है छाँव,
एे मन! अब मेरा नही वो गाँव,
ऐ मन तू धीरज रख, अब मेरा नहीं वो गाँव......!

वो अंजान से

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

मेरे हृदय की बेमोल व्यथा कौन सुनता है यहाँ,
कितने ही अलबेले तरंग हरपल मन में पलते यहाँ,
मिथ्या सी लगती हैं सारी अनकही कहानियाँ,
कुछ इस तरह ही रही गुजरते लम्हों की मेरी दास्ताँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

साँसो की वलय कितने ही इस पल को हैं मिले,
कितने ही सपनों ने आँखों में छुपकर ही दम तोड़े,
जज्बातें हरपल पिसती रही इस मन के भीतर,
कुछ इस तरह रही जिन्दगी के लम्हों की पूरी कारवाँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

अब मैं हूँ और संग मेरे कठोर हो चुका मेरा हृदय,
अनकही कहानियाें की टूटी दीवारे बिखरी हुई हैं यहाँ,
लम्हा-लम्हा गुजरे वक्त का बिखरा सूना सा यहाँ,
कुछ इस तरह रही अनसुनी हृदय की अधूरी कहानियाँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

Sunday, 24 April 2016

निःशब्द

निःशब्द कोई क्युँ बिखरे इस धरा पर,
निष्प्राण जीवन कैसे रह पाए इस अचला पर,
बिन मीत कैसे सुर छेड़े कोई यहाँ पर,
आह! स्वर निःशब्दों के निखरते आसमाँ पर।

प्रखर हो रहे हैं अब, निःशब्द चाँदनी के स्वर,
मूक शलभ ने भी ली है फिर यौवन की अंगड़ाई,
छेड़ी है निस्तब्ध निशा ने अब गीत गजल कोई,
तारों के संग नभ पर सिन्दूरी लाली छाई।

कपकपी ये कैसी उठी, निःशब्दो के स्वर में,
आ छलके है क्यूँ नीर, निःशब्दों के इन पलकों में,
हृदय उठ रही क्यूँ पीर निःशब्दों के आलय में,
काश! कोई तो गा देता गीत निःशब्दों के जीवन में।

Thursday, 21 April 2016

मन में प्रतीक्षा के ये पल

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सुन ओ मीत मेरी,
प्रतीक्षा की उन्मादित पल के,
गीत वही फिर गाता है मन,
तेरी कल्पित मधुर प्रतीक्षा के।

गीत गाती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

सिहरन बिजुरी सी,
कैसी प्रतीक्षा की इस क्षण में,
ये राग बज रहे विषम,
आस-निराश की उलझन में।

सुलगती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

प्रतीक्षा की ये घड़ियाँ,
होते मादक मिलन के पल से,
तरंग पल-पल उठते,
सिहरित आशा की आँगन में।

तरंगित होती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

ओ मेरे प्रतीक्षित मीत,
प्रतीक्षा की पल को तु कर दे विस्तृत,
धुन वही एक तेरी होती रहें तरंगित,
पलकें बिछ जाएँ बस इक तेरी आशा में।

साँसे लेती रहें सदा, प्रतीक्षा के ये पल मन में!

प्रतीक्षारत

स्नेह मन का प्रतीक्षारत, तुम प्रतीक्षा के ये पल ले लो!

मैं सागर प्रीत का एकांत स्नेह भरा,
सिहरता पल-पल प्रतीक्षा की नेह से भरा,
प्रतीक्षा की इल पल को स्नेहित कर दो,
नेह का तुम मुझसे इक अटूट आलिंगन ले लो।

गीत मन की प्रतीक्षारत, तुम गीत मेरे मन के ले लो!

सुन ऐ मेरे मन के चिर प्रतीक्षित मीत,
कहता है कोई, प्रतीक्षा तो स्वयं भी है एक गीत,
बार बार जिसको जग कर ये मन गाता है,
तुम मेरी प्रतीक्षा का चिर स्नेहित गीत ले लो।

युगों से मन प्रतीक्षारत, तुम प्रतीक्षा के ये युग ले लो!

प्रतीक्षा इस सागर की गहराती हर पल,
गीत वही इक धुन की चिर युगों से प्रतीक्षारत,
प्रतीक्षा के गीतों मे मैं जब-जब जागा हूँ,
कहता उस पल ये मन, हृदय तुम मेरा ले लो।

जागा हूँ मैं प्रतीक्षारत, नींद के पल मेरे मुझको दे दो!