Saturday, 24 September 2016

बचपना

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना।

दौड़ पड़ता हूँ आज भी खेतों की आरी पर,
विचलित होता हूँ अब भी पतंगें कटती देखकर,
बेताब झूलने को मन झूलती सी डाली पर,
मन चाहता है अब, कर लूँ मैं फिर शैतानियाँ ....

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना,

लटकते बेरी पेड़ों के, मुझको हैं ललचाते,
ठंढी छाँव उन पेड़ों के, रह रहकर पास बुलाते,
मचल जाता हूँ मै फिर देखकर गिल्ली डंडे,
कहता है फिर ये मन, चल खेले कंचे गोलियाँ.....

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना।

यौवन की दहलीज पर उम्र हमें लेकर आया,
छूट गए सब खेल खिलौने, छूटा वो घर आंगना,
बचपन के वो साथी छूटे, छूटी सब शैतानियाँ,
पर माने ना ये मन , करता यह नादानियाँ....

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना।

Thursday, 22 September 2016

सरहदें

देखी हैं आज फिर से मैने लकीरें सरहदों के,
दर्द अन्जाना सा, न जाने क्यूँ उठने लगा है सीने में..

लकीरें पाबन्दियों के खींच दी थी किसी ने,
खो गई थी उन्मुक्तता मन की उमरते आकाश के,
हिस्सों में बट चुकी थी कल्पनाशीलता,
विवशता कुछ ऐसा करने की जो यथार्थ सो हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

उन्मुक्त मन, आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
कल्पना के चादर आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें ये बेमेल सी विचारधारा,
भावप्रवणता हैं विवश खाने को सरहदों की ठोकरें,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

देखी हैं आज फिर से मैने लकीरें सरहदों के,
दर्द अन्जाना सा, न जाने क्यूँ उठने लगा है सीने में..

Wednesday, 21 September 2016

उरी...की गोली

जैसे, धँस गई हो एक गोली उसके सीने के अन्दर भी......

चली थी अचानक ही गोली उरी की सीमा पर,
धँस गई थी एक गोली उसके सीने में भी आकर,
बिखर चुके थे सपने उसके लहू की थार संग,
सपने उन आँखों मे देकर, आया था वो सीमा पर...

उफ क्या बीती होगी उस धड़कते दिल पर,
अचानक रूँधा होगा कैसे उस अबला का स्वर,
रह रह कर उठते होंगे मन में अब कैसे भँवर,
जब उसे मिली होगी, रहबर के मरने की खबर....

गुम हुआ है उसके सर से आसमाँ का साया,
निर्जीव सा है जीवन, निढाल हुई उसकी काया,
शेष रह गईं है यादें और इन्तजार सदियों का,
पथराई सी आँखों में, चाह कहाँ अब जीवन का......

जैसे, धँस गई हो एक गोली उसके सीने के अन्दर भी.....

Monday, 19 September 2016

घर

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें...

कहता हूँ मैं अपनी दुनियाँ जिसे,
वो चहारदिवारी जहाँ हम तुम बार-बार मिले,
जहाँ बचपन हमारे एकबार फिर से खिले,
करके इशारे, वो आँगन फिर से बुलाती हैं तुझे...

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

पलकों तले तुमने सजाया था जिसे,
इंतजार करती थी तुम जहाँ नवश्रृंगार किए,
आँचल तेरे ढलके थे जहाँ पहलू में मेरे,
पलकें बिछाए, वो अब देखती है बस तेरी ही राहें....

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

रौशन थे तुझसे ही इस घर के दिए,
तेरी आँखों की चमक से यहाँ उजाले धे फैले,
खिल उठते थे फूल लरजते होठों पे तेरे,
दामन फैलाए, वो तक रहीं हैं बस तेरी ही राहें....

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

खामोशियाँ

पुकार ले तू मुझको, कुछ बोल दे ऐ जिन्दगी,
रहस्य खामोशियों के, कुछ खोल दे ऐ जिन्दगी....

यह खामोशी है कैसी......

विषाद भरे आक्रोशित चिट्ठी की तरह गुमशुम,
राख के ढेर तले दबे गर्म आग की तरह प्रज्वलित,
तपती धूप में झुलसती पत्थर की तरह चुपचाप....

खामोशियाँ हों तो ऐसी.....

जज्बात भरे पैगाम लिए चिट्ठी की तरह मुखर,
दीवाली के फुलझड़ी मे छुपी आग सी खुशनुमा,
धूप में तपती गर्म पत्तियों की तरह लहलहाती.....

खामोशी है यह कैसी....

पुकार ले तू मुझको, कुछ बोल दे ऐ जिन्दगी,
तु कर दे इशारे, बता कि ये खामोशियाँ हैं कैसी?
रहस्य खामोशियों के, कुछ खोल दे ऐ जिन्दगी....

Sunday, 18 September 2016

कटते नहीं कुछ पल

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

चूर हुआ जाता है जब बदन थक कर,
मुरझा जाती हैं ये कलियाँ भी जब सूख कर,
पड़ जाती हैं सिलवटें जब सांझ पर,
छेड़ जाता है वो पल फिर चुपके से आकर,

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

मद्धिम सी सूरज हँसती थी फलक पर,
आसमाँ से गिरके बूंदे, छलक जाती धी बदन पर,
नाचता था ये मन मयूर तब झूमकर,
बदली सी हैं फिजाएं, पर ठहरा है वो पल वहीं पर,

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

उस पल में थी जिन्दगानी की सफर,
उमंग थे, तरंग थे, थे वहीं पे सपनों के शहर,
लम्हे हसीन से गुजरते थे गीत गाकर,
पल वो भुलाते नहीं फिर गूंजते हैं जब वो स्वर,

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

इक अमिट याद हूँ मैं

इक अमिट याद हूँ मैं, रह न पाओगे मेरी यादों के बिना।

सताएंगी हर पल मेरी यादें तुझको,
आँखें बंद होंगी न तेरी, मेरी यादों के बिना,
खुली पलकों में समा जाऊंगा मैं,
तन्हा लम्हों में चुपके से छू जाऊंगा मैं,
जिन्दगी विरान सी तेरी, मेरी यादों के बिना।

संवारोगे जब भी तुम खुद को,
लगाओगे जब भी इन हाथों में हिना,
याद आऊँगा मैं ही तुमको,
देखोगे जब भी तुम कही आईना,
निखरेगी ना सूरत तेरी, मेरी यादों के बिना।

गीत बनकर होठों पर गुनगुनाऊंगा मैं,
तेरी काजल में समा जाऊंगा मैं,
संभालोगे जब भी आँचल को सनम,
चंपई रंग बन बिखर जाऊँगा मैं,
सँवरेंगी न सीरत तेरी, मेरी बातों के बिना।

हमदम हूँ मैं ही तेरी तन्हाई का,
तेरे सूने पलों को यादों से सजाऊंगा मैं,
भूला न पाओगे तुम मुझको कभी,
खुश्बू बनकर तेरी सांसों मे समा जाऊंगा मैं,
तन्हाई न कटेगी तेरी, मेरी यादों के बिना।

इक अमिट याद हूँ मैं, रह न पाओगे मेरी यादों के बिना।

Friday, 16 September 2016

अधलिखी

अधलिखी ही रह गई, वो कहानी इस जनम भी ....

सायों की तरह गुम हुए हैं शब्द सारे,
रिक्त हुए है शब्द कोष के फरफराते पन्ने भी,
भावप्रवणता खो गए हैं उन आत्मीय शब्दों के कही,
कहानी रह गई एक अधलिखी अनकही सी....

संग जीने की चाह मन में ही रही दबी,
चुनर प्यार का ओढ़ने को, है वो अब भी तरसती,
लिए जन्म कितने, बन न सका वो घरौंदा ही,
अधूरी चाह मन में लिए, वो मरेंगे इस जनम भी ....

जी रहे होकर विवश, वो शापित सा जीवन,
न जाने लेकर जन्म कितने, वो जिएंगे इस तरह ही,
क्या वादे अधूरे ही रहेंगे, अगले जनम भी?
अनकही सी वो कहानी, रह गई है अधलिखी सी....

विलख रहा हरपल यह सोचकर मन,
विधाता ने रची विधि की है यह विधान कैसी,
अधलिखी ही रही थी, वो उस जनम भी,
वो कहानी, अधलिखी ही रह गई इस जनम भी ....

Thursday, 15 September 2016

अफसाना

लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना....

रुक गया था कुछ देर मैं, छाॅव देखकर कहीं,
छू गई मन को मेरे, कुछ हवा ऐसी चली,
सिहरन जगाती रही, अमलतास की वो कली,
बंद पलकें लिए, खोया रहा मैं यूॅ ही वही,
लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा तब वो अफसाना....

कुछ अधलिखा सा वो अफसाना,
दिल की गहराईयों से, उठ रहा बनकर धुआॅ सा,
लकीर सी खिंच गई है, जमीं से आसमां तक,
ख्वाबों संग यादों की धुंधली तस्वीर लेकर,
गाने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना.....

कह रहा मन मेरा बार-बार मुझसे यही,
उसी अमलतास के तले, आओ मिलें फिर वहीं,
पुकारती हैं तुझे अमलतास की कली कली,
रिक्त सी है जो कहानी, क्यूॅ रहे अनलिखी,
लिखने लगा ये मन, अधलिखा सा फिर वो अफसाना....

Wednesday, 14 September 2016

गुजरी राहें

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

वो राहें मुड़कर देखती हैं अब राहें मेरी,
जिन राहों से मैं गुजरा था बस दो चार घड़ी,
शायद करने लगी हैं वो राहें मुझसे प्यार,
सुन सकूंगा न मैं उन राहों की सदाएं,
पुकारो न मुझको बार-बार, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

इस कर्मपथ पर मेरी, गुजरेंगी राहें कई,
अपनत्व बाटूंगा उन्हे भी मैं, चंद पल ही सही,
अपने दिल के करने होंगे मुझे टुकड़े हजार,
कर न सकूंगा मैं उन राहों से भी प्यार,
हो सके तो भूल जाना मुझे, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

ए राहें, तू झंकृत न कर मेरे मन के तार,
तू दे न अब सदाएं, बुला न मुझको यूॅ बार-बार,
बाॅध न तू मुझे रिश्तों के इन कच्चे धागों से,
भीगेंगी आॅखें मेरी, तोड़ न पाऊंगा मैं ये बंधन,
बेवश न कर अब मुझको, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...