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Monday 21 January 2019

अभागिन

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

स्नेह वंचित, एक बस तू ही नहीं,
नीर सिंचित, नैन बस इक तेरे ही नहीं,
कंपित हृदय, सिर्फ तेरा ही नहीं,
किंचित्, भरम ये रखना नहीं,
नैन कितनों के जगे, तारे गिन-गिन!

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

भाग्य, लिखता कोई खुद से नहीं,
मनचाहा, मिलता हमेशा सबको नहीं,
हासिल है जो, वो कम तो नहीं!
पाकर उसे, बस खोना नहीं,
सहेज लेना, हिस्से के वो पलक्षिण!

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

पिपासा है ये, जो मिटती नहीं,
अभिलाषा अनन्त, कभी घटती नहीं,
तृष्णा है ये, कभी मरती नहीं,
खुशियाँ कहीं, बिकती नहीं,
पलटते नहीं, बीत जाते हैं जो दिन!

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

विधि का विधान, जाने विधाता,
न जाने भाग्य में, किसके लिखा क्या,
पर, हर रात की होती है सुबह,
सदा ही, अंधेरा रहता नहीं,
हो न हो, बुझ रहा हो रात पलक्षिण।

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

Friday 16 September 2016

अधलिखी

अधलिखी ही रह गई, वो कहानी इस जनम भी ....

सायों की तरह गुम हुए हैं शब्द सारे,
रिक्त हुए है शब्द कोष के फरफराते पन्ने भी,
भावप्रवणता खो गए हैं उन आत्मीय शब्दों के कही,
कहानी रह गई एक अधलिखी अनकही सी....

संग जीने की चाह मन में ही रही दबी,
चुनर प्यार का ओढ़ने को, है वो अब भी तरसती,
लिए जन्म कितने, बन न सका वो घरौंदा ही,
अधूरी चाह मन में लिए, वो मरेंगे इस जनम भी ....

जी रहे होकर विवश, वो शापित सा जीवन,
न जाने लेकर जन्म कितने, वो जिएंगे इस तरह ही,
क्या वादे अधूरे ही रहेंगे, अगले जनम भी?
अनकही सी वो कहानी, रह गई है अधलिखी सी....

विलख रहा हरपल यह सोचकर मन,
विधाता ने रची विधि की है यह विधान कैसी,
अधलिखी ही रही थी, वो उस जनम भी,
वो कहानी, अधलिखी ही रह गई इस जनम भी ....

Sunday 31 July 2016

बर्फ सी जिन्दगी

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....

जिन्दगी ये बर्फ के फाहा सी,
तन चाँदी सम, प्रखर तेज आभा इसकी,
फूलों सा स्पर्श, कोमल काया इसकी,
नग्न धूप में खिलती, सुनहरी आभा इसकी,
पिघल रही पत्थरों पर, विधि की विधान यह कैसी?

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....

पल पल पिघलती यह जिन्दगी,
सख्त पत्थरों के तन को पल पल सहलाती,
उष्मा सोखती तप्त-गर्म पत्थरों की,
ठंढ़ी काया अपनी पत्थर पर पिघलाती,
सजल हुई पत्थरों पर, विधि की विधान यह कैसी?

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....

सागर बना तब वो, जब ये बर्फ गली,
कंटक भरी राहों चला वो, तब ये नदी बनी,
उमंगें, आशाएँ, लहरें इसके तट खिली,
कलियाँ जीवन की खिली, ऊँचाई से जब यह फिसली,
आँचल खुली पत्थरों पर, विधि की विधान यह कैसी?

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....

तू कायम रह सदा कहती जिन्दगी,
सर ऊँचा, मन शान्त, हृदय में तू रख बंदगी,
तेरी राहें तुझे नई ऊँचाई दे जीवन की,
मैं तो जीवन हूँ, तेरे ही तन रही सदा फिसलती,
निर्जल हुई पत्थरों पर, विधि की विधान यह कैसी?

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....