Tuesday, 13 March 2018

इस शहर में

इस शहर में, कम ही लोग बोलते हैं...

चुप ही चुप, खामोशियों को तोलते हैं,
न जाने क्यों, कम ही लोग बोलते हैं...

वो गूंगे हैं जो, बस आँखों से तोलते हैं,
चुप ही चुप, न जाने क्या टटोलते हैं...

गर जरूरत हो, तो वे जुबां खोलते हैं,
आगे पीछे वो, गैरों के भी डोलते हैं...

मतलब से, वो जुबाने जहर घोलते है,
जुबा-एँ-खंजर, वो सीने में घोपते हैं...

जुबान पे मिश्री, वो कम ही घोलते हैं,
कहाँ मन को, वो कभी टटोलते हैं...

बीच शहर के, वो हृदय जो खोलते हैं,
पागल है वो!,  सब यही बोलते है....

फितरत में, तो बस फरेब ही पलते हैं,
इस शहर में, कम ही लोग बोलते हैं...

बातें

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

वो चंद किस्से, वो चंद मुलाकातें,
फिर न जाने......
तुम कहां और हम कहां थे,
अब दामन में आए....
ये छोटे से दिन, वो लम्बी सी रातें....

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

कुछ यादों के पल मिले थे जिन्दगी के,
वो दो चार पल......
जब बहके थे हम दिल्लगी से,
जीवंत पल वो खुशी के.....
अब गूंजते है जेहन में वो ही बातें.....

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

वो ही चंद किस्से, वो ही चंद बातें,
फिर वही मुलाकातें....
वो ही संग जीवंत धड़कनों का,
वो बहकी सी जज्बातें....
काश! फिर वही पल मुझे मिल पाते.....

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

Sunday, 11 March 2018

विलम्बित लय

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

विचरते मन में ख्याल कई,
धुन कई, पर लय ताल एक ही!
ख्यालों में दिखती इक तस्वीर वही,
जैसे वो हो चित्रकला कोई,
नाजों से गढी, खूबसूरत बला कोई,
वहीं ठहर गई हो जैसे मन की द्रुत गति,
अब लय विलम्बित वही....

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

मन का अवलम्बन या वीतराग,
विलम्बित लय में मन का द्रुत राग,
दीवारों पर टंगी वो चंचल सी तस्वीर,
इकटक खामोशी तोड़ती हुई,
निलय में गूंजती विलम्बित गीत वही,
धड़कन में बजती अब धीमी संगीत वही,
अब अनुराग विलंम्बित वही....

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

बंदिश का मनमोहक विस्तार,
आलाप, स्वर, तान का नव विहार,
शमाँ बाँधती विलंबित स्वर की बंदिश,
मूर्त होती वो चित्रकला कोई,
अलवेला रूप सुहावन हो जैसे कोई,
हृदयपटल पर बंदिशें अंकित करती हुई,
अब ख्याल विलंम्बित वही....

मन के निलय, इक ख्याल, इक विलम्बित लय....

Saturday, 10 March 2018

पवन बावरी

न जाने पंख कैसे लिए, चली है तू पवन बावरी!

यूं ही किस देश को तू चली?
तू कह दे जरा, क्या है ये माजरा?
है तेरे मन में क्या,
मैं भी तो सुन लूं जरा!
थर्राई है क्यूं पत्तियाँ, तू जो अचानक चली!

बयार मंद सी थी तू भली!
अब अचानक ये उठा कैसा गुबार?
मचला है मन तेरा,
या उठ रहा कोई ज्वार!
मद में यूं बहती हुई, संग तू किसके चली!

सुन! यूं शोर तू ना मचा!
सन सनन-सनन यूं न तू गुनगुना!
गीत कैसा है ये!
रुक जरा तू मुझको सुना!
बहकी सी सुरताल में, बवाल तू ना मचा!

तू तो प्राण का आधार है!
अन्दर तेरे, तुफान सा क्युं मचा?
ये बवंडर सा क्यूं,
ठेस तुझको लगी है क्या?
अशान्त तू है क्यूं, बहकी है क्यूं बावरी?

ऐ री पवन! तू हुई क्यूं बावरी?
ये अचानक तुझको हुआ है क्या?
यूं चातक कोई,
तेरा मन ले उड़ा है क्या?
तू भटक रही है क्यूं, दिशा-दिशा यूं बावरी?

न जाने पंख कैसे लिए, चली है तू पवन बावरी!

Thursday, 8 March 2018

खामोश अभिव्यक्ति

कुछ उभरते अल्फाजों की अभिव्यक्ति,
कुछ चुप से हृदय के, खामोशियों की प्रशस्ति,
दे गई, न जाने मन को ये कैसी शक्ति!

सशंकित था मन, उन खामोशियों से,
उत्साह संवर्धित कर गई, वो बोलती खामोशी,
अचंभित सी कर गई वो अभिव्यक्ति!

वही खामोश से अल्फाज,
अब इन बहती हवाओं से चुनकर,
अनुरोध करता हूं मन को,
तू ख्वाबों को रख...
कहीं खामोशियों से बुनकर!
वो रेशमी अहसास तू देना उन्हे,
सो जाएंगे वो भी...
खामोशियाँ ही ओढ़कर,
फिर तू भी बुन लेना खुद को,
हर पल फना होती,
इस बहती सी दुनियाँ को भूलकर!

अभिव्यक्ति! बिना किसी अतिशयोक्ति,
उभरेंगी लफ्जोें में, चुप से हृदय की अभिव्यक्ति!
उत्साहवर्धन करेंगो, वो बोलती खामोशी!

निःसंकोच! वही टूटती सी खामोशी,
वही चुप से हृदय के, खामोशियों की प्रशस्ति,
तब भी अचंभित करेंगी ये अभिव्यक्ति!

बहती जमीं

बहते से रास्तों पर, मंजिल को ढॣंढता हूं मैं...
आए न हाथ जो, सपने वही ढॣंढता हूं मैं...

आरजुओं के गुल ढूंढता हूं मैं,
बहती सी इस जमीं पर,
शहर-शहर मन्नतों के घूमता हूं मैं....

बस इक धूल सा उड़ता हूं मै,
इन्ही फिजाओं में कहीं,
बेवश दूर राहों पे भटकता हूं मैं.....

इक वो ही निशान ढूंढता हूं मैं,
बह रही जो रास्तों पर,
ख्वाहिशों के मुकाम ढॣंढता हूं मैं...

बहते से रास्तों पर, मंजिल को ढॣंढता हूं मैं...
आए न हाथ जो, सपने वही ढॣंढता हूं मैं...

Tuesday, 6 March 2018

इक परिक्रमा

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

है कई सवाल, पर जवाब एक ही!
कई रास्तों पर सफर, बसर है बस वहीं!
थक गए अगर, मुड़ गए कदम वहीं,
नींद में, नाम वही लेती जिन्दगी!
अविराम परिक्रमा सी, ये इक बन्दगी!

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

सौ-सौ शिकवे, शिकायतें उनसे ही,
मुहब्बत की हजारों, रवायतें उनसे ही,
हकीकत में ढलती, रवानी वही!
परिक्रमा करती, इक कहानी वहीं,
अहद-ए-वफा निभाती, ये इक बन्दगी!

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

इक छोर है यहाँ, दूजा छोर कहीं
विश्वास के डोर की, बस धूरी है वही,
उसी धूरी के गिर्द, ये परिक्रमा,
ज्यूं तारों संग, नभ पर वो चन्द्रमा!
कोई प्रेमाकाश बनाती, ये इक बन्दगी!

कुछ वादों के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करती ये जिन्दगी...

Saturday, 3 March 2018

ओ रे साथिया!

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

बदलेंगे यहाँ मौसम कई,
बदलेगी न राहें कभी सुरमई,
सुरीली हो धुन प्यार की,
नया गीत लिख जाएंगे हम कई...
यू चलते रहेंगे हम यहाँ,
आ बना ले इक नया हम जहाँ....

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

हो प्रेम की वादी कोई,
गूंजते हों जहाँ शहनाई कोई,
गीतों भरी हो सारी कली,
आ झूमें वहाँ हर डगर हर गली...
यूं मिलते रहे हम यहाँ,
आ लिख जाएँ हम नया दास्ताँ.....

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

हर गीत मे हो तुम्ही,
संगीत की हर धुन में तुम्ही,
तुम सा नही दूजा कोई,
रंग दूजा न अब चढता कोई....
यूं बदलेंगे ना हम यहाँ,
आ मिल रचाएँ हम सरगम नया....

ओ रे साथिया! चल गीत लिखें कोई इक नया....

व्याप्त सूनापन

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

छवि उस तारे की रमती है मेरे मन!
वो जा बैठा कहीं दूर गगन,
नभ विशाल है कहीं उसका भवन!
उस बिन सूना मेरा ये आँगन?
छटा विहीन सा है लगता, अब क्यूं ये गगन?
क्यूं वो तारे, आते नहीं अब इस आँगन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये अंधियारापन?
क्या पर्याप्त नहीं, छोटा सा मेरा ये आँगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

कवि मन रमता इक वो ही आरोहण!
क्या भूला वो मेरा ही गायन?
जर्जर सी ये वीणा मेरे ही आंगन!
असाध्य हुआ अब ये क्रंदन,
सुरविहीन मेरी जर्जर वीणा का ये गायन!
संगीत बिना है कैसा यह जीवन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये बेसूरापन?
क्या पर्याप्त नहीं, मेरे रियाज की ये लगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

Friday, 2 March 2018

रंग

सबरंग, जीवन के कितने विविध से रंग....

कहीं सूखते पात,
बिछड़ते डाली से छूटते हाथ,
कहीं टूटी डाल,
कहीं नव-कलियों का ताल,
कहीं खिलते हँसते फूल,
वहीं मुरझाए से फूल,
जमीं पर औंधे छाए से फूल,
वहीं झूलती डाली पर विहँसते शूल,
पीले होते हरे से पात,
धीमे पड़ते रंग,
वहीं नव-अंकुरित अंग,
चटक हरे भरे से रंग,
क्रन्दन-गायन दोनो संग-संग.....

सबरंग, जीवन के कितने विविध से रंग....

कहीं मरुस्थल सारा,
फैला रजकण का अंधियारा,
वहीं बहती जलधारा,
नदियों का सुंदर आहद नाद,
गिरते प्रिय जलप्रपात,
कहीं सुनामी सा भीषण गर्जन,
जल से काँपता जन-जीवन,
कभी दुःख से सुख हारा,
समाहित कभी सुख में दुःख सारा,
मन में गूंजते अनहद नाद,
कभी पलते विषाद,
कैसा जीवन का संवाद,
विष और अमृत दोनो संग संग...

सबरंग, जीवन के कितने विविध से रंग....