Thursday, 17 January 2019

चल झूठी

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

सपन! सलोना सा है वो मेरा,
उन सपनों में, रमता है ये मन मेरा,
आओ देखो, तुम भी ये सपना,
झूठ या सच, मुझको फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

सागर तट सी, उनकी पलकें,
मदिरा हरपल, नैनों से हों छलके,
पास बुलाए, वो चल-चल के,
ना होश उड़ा दे, तो फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

भूल-भुलैय्या, हैं उनकी आँखें,
जाना-पहचाना, वो पथ बिसरा दे,
वो स्वागत में, दो बाहें फैला दे,
मोहित ना कर दे, तो फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

रूप सुनहरा, जैसे हो गहना,
बरसा हो सावन, जैसे इस अंगना,
नित चाहे मन, उनमें ही खोना,
सुंदर ना हो सपना, तो फिर कहना!

चल झूठी! फिर झूठ मुझे ना कहना...

Wednesday, 16 January 2019

मन की उपज

राग-विहाग, अनुराग, वीतराग,
कल्पना, करुणा, भावना, व्यंजना,
आवेग, मनोवेग, उद्वेग, संवेग,
गैर नहीं, अपने हैं, मन के ही ये उपजे हैं!

भावप्रवण, होता है जब भी मन,
सिक्त हो उठते है, तब ये अन्तःकरण, 
कराहता है मन, फूट पड़ता है कोई घाव,
अन्तः उभरता है, इक प्रतिश्राव,
जागृत हो उठते है, मन के सुसुप्त प्रदेश,
फूट पड़ती है, सिक्त सी जमीं....

ये प्रतिश्राव, गैर नहीं, मन के ही उपजे हैं!

अनियंत्रित, हो उठती हैं इंद्रियाँ,
अवरुद्ध, हो जाती है मन की गलियाँ,
तड़पाता है मन, अकुलाता है ये ठहराव,
रुक-रुक, चलता है नंगे ही पाँव,
उबल पड़ते हैं कभी, मन के भावावेश,
सिसकती है, सिक्त सी जमी....

ये भावावेश, गैर नहीं, मन के ही उपजे हैं!

अनुस्यूत हैं, इन भावों से मन,
फलीभूत हैं, इन उच्छ्वासों से मन,
बांधता है मन, अन्तहीन सा ये फैलाव,
घनेरी सी, जब करती है ये छाँव,
मृदुल एहसासों का, मन देता है संदेश,
विहँस पड़ती है, सिक्त सी जमीं.....

ये एहसास, गैर नहीं, मन के ही उपजे हैं!

तृष्णा, घृणा, करुणा, वितृष्णा,
अनुताप, संताप, आलाप, विलाप,
विद्वेष, क्लेश, लगाव, दुराव,
गैर नहीं, अपने हैं, मन के ही ये उपजे हैं!

Monday, 14 January 2019

कैसे ना तारीफ करें

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

बासंती रंग, हवाओं में बिखरे,
पीली सरसों, जब खेतों में निखरे,
कहीं पेड़ों पर, कोयल कूक भरे,
रिमझिम बूंदें, घटाओं से गिरे!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

मुस्काए कोई, हलके-हलके,
सर से उनके, जब आँचल ढ़लके,
बातें जैसे, कोई मदिरा छलके,
वो कदम रखें, बहके-बहके!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

तारीफ के हो, कोई काबिल,
लफ्जों में हो, किन्हीं के बिस्मिल,
आँखों मे हो , तारे झिलमिल,
बातों में हो, हरदम शामिल!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

Sunday, 13 January 2019

यदा कदा

यदा कदा!
फिर कर उठता है मन,
सजल नैनों से, उन राहों पे सजदा,
जिद, फिर जाने की उधर,
उजाड़ सा वो शहर,
दुर्गम अपवाहित वो ही डगर!
उठते हैं जिन पर,
रह-रह कर,
नित, कोई प्रबल ज्वर,
नियंत्रण, ना हो जिन पर....
दो घड़ी,
पा लेने को चैन,
अनथक, करता है प्रतीक्षा,
उन राहों पे मन,
चल पड़ता है, करने को फिर सजदा...

यदा कदा!
फिर कह उठता है मन,
निर्जन है वो वन, पागल ना बन,
जिद, ना तू कर इस कदर,
उजड़ा है वो शहर,
क्या पाएगा जाकर उस डगर?
मरघट है बस जिधर,
जी-जी कर,
नित, मरते सब जिधर,
अधिकार, ना हो जिन पर,
पा लेने को चैन,
असफल, करता है इक्षा,
उन राहों पे मन,
क्यूँ चलता है, करने को फिर सजदा...

यदा कदा!
फिर बह उठता है मन,
उफनती हुई, इक नदिया बन,
जिद, प्रवाह पाने को उधर,
बहा जाने को शहर,
प्रवाहित ही कर देने को डगर,
सम्मोहन सा है जिधर,
मर-मर कर,
नित, जीता वो जिधर,
ठहराव, ना हो जिन पर,
पा लेने को चैन,
प्रतिपल, देता है परिविक्षा,
खुद राहों को मन,
समाहित कर, फिर करता है सजदा...

यदा कदा! कैसी ये सजदा!

Saturday, 12 January 2019

स्वर उनके ही

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

सम्मोहन सा, है उनकी बातों में,
मन मोह गए वो, बस बातों ही बातों में,
स्वप्न सरीखी थी, उनकी हर बातें,
हर बात अधूरा, छोड़ गए वो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

सब कह कर, कुछ भी ना कहना,
बातें हैं उनकी, या है ये बातों का गहना,
कहते कहते, यूँ कुछ पल रुकना,
मीठे सम्मोहन, घोल गए वो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

रुक गए थे वो, कुछ कहते कहते,
अच्छा ही होता, वो चुप-चुप ही रहते,
विचलित ये पल, नाहक ना करते,
असमंजस में, छोड़ गए वो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

स्वप्न, जागी आँखों का हो कोई,
मरुस्थल में, कोयल कूकती हो कोई, 
तार वीणा के, छेड़ गया हो कोई,
स्वप्न सलोना, छोड़ गए वो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

काश! न रुकता ये सिलसिला,
ऐ रब, फिर चलने दे ये सिलसिला,
कह जा उनसे, फिर लब हिला,
सिलसिला , जोड़ गए जो बातों में!

स्वर उनके ही, गूंज रहे अब कानों में.....

Friday, 11 January 2019

गुजारिश

ऐ बेजार हवाओं!
है बस एक गुजारिश!
तुम गीत न ऐसे, फिर मुझको सुनाओ!

सदियाँ सूखीं, युग-युगांतर सूख गए,
नदियाँ सूखीं, झील, ताल-तलैया सूख गए,
मौसम बदले, हवाओं के रुख मोड़ गए,
सूखे पत्ते, अगणित राहों में छोड़ गए......

ऐ बेजार हवाओं!
है बस एक गुजारिश!
बरस भी जाओ, सदा न ऐसे भरमाओ!

भूल चले सब, अब रिमझिम के धुन,
गूंज रहे कानों में, खड़-खड़ पत्तों के धुन,
पनघट बाजे ना, पायल की रून-झुन,
छेड़ जरा तू, फिर से बारिश की धुन.....

ऐ बेजार हवाओं!
है बस एक गुजारिश!
गाओ, गीत कोई मतवाला फिर से गाओ!

सूखे हैं तट, मांझी की सूनी है नैय्या,
सूनी नजरों से, टुक-टुक ताके है खेवैय्या,
गीत न कोई गाए, गुमसुम सा गवैय्या,
बोल, बेरहम सा क्यूँ तेरा है रवैय्या......

ऐ बेजार हवाओं!
है बस एक गुजारिश!
रूठो ना तुम, राग सुरीला फिर सेे गाओ!

सूखे से मौसम में, भीगी हैं ये आँखें,
बेमौसम, बरस जाती है जब-तब ये आँखें,
हृदय तक, जल-प्लावित हैं सारी राहें,
तुम भीग लो, ले लो इनकी ही आहें...

ऐ बेजार हवाओं!
है बस एक गुजारिश!
रूखे गीत ऐसे, फिर से तुम ना गाओ!

Wednesday, 9 January 2019

छद्मविभोर

हर सांझ, मैं किरणों के तट पर,
लिख लेता हूँ, थोड़ा-थोड़ा सा तुझको.....

कहीं तुम्हारे होने का,
छद्म विभोर कराता एहसास,
और ये दूरी का,
विशाल-काय आकाश,
सीमा-विहीन सी शून्यता,
गहराती सी ये सांझ,
रिक्तता का देती है आभास,
गगन पर दूर,
कहीं मुस्काता है वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, सीमा-हीन इस तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

पंछी से लेता हूँ कलरव
किरणों से ले लेता हूँ तुलिकाएँ,
छंद कोई गढ़ लेता हूँ,
तस्वीर अधूरी सी,
उभार लाती है ये सांझ,
सजग हो उठती है कल्पना,
दूर क्षितिज पर,
नीलाभ सा होता आकाश,
संग मुस्काता वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, नील गगन के तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

Monday, 7 January 2019

खुद मैं @52

उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?

उस दरमियाँ, था मैं भी कभी जवाँ,
उत्थान ही, दिखता था हर पल,
मोर सा, आसमान, नाचता था सर पर,
टिकते थे कहाँ, राहों पे कदम,
मुट्ठियों में कैद, था जैसे ये सारा जहाँ,
यूँ ही नापते, उम्र की सीढियां!
इस मुकाम पर, पहुंचे हैं हम कहाँ?

उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?

अब भी यहाँ, वैसी ही है ये दुनियाँ,
दिन-रात की, एक सी है गति,
सूरज, चाँद, तारों की, बदली है न परिधि,
थम से गए, कुछ मेरे ही कदम,
खुल सी गई मुट्ठियाँ, छाने लगी झुर्रियाँ,
शायद, कुछ ही बची सीढियां!
या ढलान पर, आ रुके है हम यहाँ?

उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?

चटकने लगी, अपनी ही अस्थियाँ,
कुछ धुंधली, हुई है पुतलियाँ,
कुछ आइनें में, बदल सी गईं ये शक्ल,
अजान राह, बढ़ चले ये कदम,
जिन्दगी की सांझ, हो रही अब जवाँ,
झूलने लगी, है ये सीढियां!
क्या प्रारब्ध यही, अवसान का यहाँ?

उम्र की सीढियां, न जाने, अंत हो कहाँ?

Saturday, 5 January 2019

जब तुम गए

यद्यपि अलग थे तुम, पर सत्य न था ये...

निरंतर मुझसे परे,
दूर जाते,
तुम्हारे कदम,
विपरीत दिशा में,
चलते-चलते,
यद्यपि,
तुम्हें दूर-देश,
लेकर गए थे कहीं,
सर्वथा,
नजरों से ओझल,
हुए थे तुम,
पर ये,
बिल्कुल ही,
असत्य था कि,
तनिक भी,
दूर थे तुम मुझसे...

यद्यपि जुदा थे तुम, पर सत्य न था ये...

उत्तरोत्तर मेरे करीब,
आती रही,
तुम्हारी सदाएं,
इठलाती सी बातें,
मर्म यादें,
मखमली सा स्पर्श,
तुम्हारा अक्श,
बोलती सी आँखें,
दिल की आहें,
मन के कराह,
पुकार तुम्हारी ही,
गूंजती रही,
आसपास मेरे,
दूर जाती,
राहों के प्रवाह,
हर कदम,
करीब आते रहे मेरे...

यद्यपि विलग थे तुम, पर सत्य न था ये...

परस्पर विरोधाभास,
एक आभास,
जैसे,
हो तुम,
बिल्कुल ही पास,
छाया सी,
तुम्हारी,
हो दूर खड़ी,
सूनी राहें, सूनी बाहें,
निरर्थक,
सी ये बातें,
जबकि तुम हो यहीं,
चादरों,
की सिलवटों से,
तुम ही,
हो झांकते,
प्रतिध्वनि तेरी,
गूंजती है मन में मेरे....

यद्यपि दूर थे तुम, पर सत्य न था ये...

Thursday, 3 January 2019

पाथेय

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

सौरभ हूँ, समीर संग, साँसों में बहूंगा,
अनुभूति हूँ, जंजीर संग, मन बांध लूंगा,
रक्त हूँ, रुधिर संग, शिराओं में बहूंगा,
वक्त हूँ, संग-संग कहीं, बीतता मिलूंगा,
याद हूँ, एकांत में, अधीर हो उठुंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

शीतल समीर, जब छू जाएगी बदन,
कानों में, कुछ बात कह जाएगी पवन,
सुरीला गीत , गुन-गुनाएगी चमन,
होगा अधीर, मन का हिरण,
कोई आलाप बन, होंठों पे सजूंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

उम्र की प्रवाह में, सूनी सी राह में,
ढ़लती सी हर सांझ में, ढूंढ लेना मुझे
एकाकीपन के, विपिन प्रांतर में,
अकेली राह में, संग चलता रहूूंगा,
फूल हूँ, रंग सा, खिलता मिलूंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...