Saturday, 11 September 2021

टीस

आसान कहाँ, भावों को अभिव्यक्ति देना...
यूँ, मूक मनोभावों को, सुन लेना!

अर्थहीन सभी लगते, यूँ, चेहरे सारे,
टिमटिम से, नैनों के दो तारे,
अपलक, जाने किसकी, राह निहारे!

यूँ, अन्तः सौ-सौ अन्तर्द्वन्द्व संभाले,
पग-पग, राहों नें द्वन्द डाले,
लगाए, चंचल से, एहसासों पे ताले!

घूंघट तले, कितने ही, सावन जले,
चुप-चुप, सारे अरमान पले,
वो अनकहे, बिन कहे, कोई सुन ले!

तड़पाए मन, भावों के आवागमन,
उलझाए, अन्तः अवलोकन,
लब कैसे दे, यूँ, शब्दों को थिरकन!

शिकन, यूँ चेहरों पे, भाव न गढ़ते,
नैनों में, यूँ न, बहाव उतरते,
टीस भरे, गहरे से ये घाव ना रहते!

आसान कहाँ, भावों को अभिव्यक्ति देना...
यूँ, मूक मनोभावों को, सुन लेना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 9 September 2021

टूटते किनारे

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम,
और, चुप से तुम!

जैसे, रुक सी रही हो, इक नदी,
चीख कर, खामोश सी हो, इक सदी,
ठहर सा रहा हो, वक्त का दरिया,
गहराता सा, एक संशय,
इक-इक पल, लिए कितने आशय,
पर, संग, बड़े बेखबर से हम,
और, गुम से तुम!
 
दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम..

जैसे, खुद में छुपी इक कहानी,
साँसों में उलझी, अल्हर सी रवानी,
वक्त, बह चला हो, वक्त से परे,
टूटते से, वो दो किनारे,
छूटते, निर्दयी पलों के, वो सहारे,
पर, कितने, अन्जान थे हम,
और, चुप से तुम!

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम..

अब, वही, यादों के अवशेष हैं,
संचित हो चले, जो वो पल शेष हैं,
बहा ले चला, वक्त का दरिया,
ना जाने, तुझको कहाँ,
नजरों से ओझल, है वो कारवाँ,
पर, उन्ही ख़ामोशियों में हम,
और, संग हो तुम!

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम,
और, चुप से तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 5 September 2021

मझधार मध्य

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

रचे प्रपंच कोई, करे कोई षडयंत्र,
बुलाए पास कोई, पढ़कर मंत्र,
जगाए रात भर, जलाए आँच पर,
हर ले, सुधबुध, रखे बांध कर,
न चाहे, फिर भी, छूटना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ये कैसा अर्पण, कैसा ये समर्पण,
ये कैसी चाहत, ये कैसा सुखन,
दहकती आग में, जले है इक तन,
सदियों, वाट जोहे कैसे विरहन,
न जाने, ये कैसी, साधना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ढ़ूंढ़े मझधार मध्य, इक सुखसार,
बसाए, धार मध्य, कोई संसार,
भिगोए एहसास, धरे इक विश्वास,
रचे गीत, डूबती, हर इक साँस,
न छूटे, मन का ये अंगना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 4 September 2021

ये शहर

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

न दिन का पता, न खबर शाम की,
जिन्दगी, सिर्फ यहाँ नाम की,
कितनी अधूरी, हर भोर, 
और, अधूरी सी, हर शाम हो चली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

अधूरे से, कुछ गीत, रहे सदियों मेरे,
टूटे, अभिलाषाओं के तानपूरे,
चुप-चुप, रही ये वीणा,
और, अधखिली उमंगों की कली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

भोर, चितचोर लगे, तो ये मन जागे,
ये बांध ले, जज्बातों के धागे,
छाए, अंधियारे से साए,
और, सिमटती सी, हर भोर मिली!

छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 1 September 2021

सुधि

भूले से, कभी सुधि लेने, आ जाओ तो,
अपनी सुध-बुध, ना खो देना!

निश्चित ठौर कहाँ, दरिया की मौजों का,
कोई गौर कहाँ, करता सहरा के कण का,
बहना है, या हवाओं संग बिखरना है,
ठहरे साहिल से, बस कहना है...

भूले से, कभी सुधि लेने, आ जाओ तो,
अपनी सुध-बुध, ना खो देना!

गर देखोगे मुखरा, पाओगे बिखरा सा,
उजाड़ सा, ये सहरा, पाओगे निखरा सा,
फूलों को, इन काँटों पर, खिलना है,
बागों के झूलों से, बस कहना है...

भूले से, कभी सुधि लेने, आ जाओ तो,
अपनी सुध-बुध, ना खो देना!

अंतर है इतना ही, तुझमें और मुझमें,
पग-पग तू ढ़ूंढ़े मुझको, मैं रमता तुझमें, 
ढ़ल कर तुझमें ही, मुझको रहना है,
बिन टोके तुझको, ये कहना है...

भूले से, कभी सुधि लेने, आ जाओ तो,
अपनी सुध-बुध, ना खो देना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 31 August 2021

पीछे छूटा क्या

कोई, क्या जाने, पीछे छूटा क्या!
कितना, टूटा क्या!

वो वृक्ष घना था, या इक वन था,
सावन था, या इक घन था,
विस्तृत जीवन का, लघु आंगन था,
विस्मित करता, वो हर क्षण था!

कोई क्या जाने, पीछे छूटा क्या!

वो बचपन था, या अल्हड़पन था,
यौवन में डूबा, इक तन था,
इक दर्पण था, या, मेरा ही मन था,
कंपित होता, हर इक कण था!

कोई क्या जाने, पीछे छूटा क्या!

वो आशाओं का, अवलोकन था,
अदृश्य भाव का, दर्शन था,
भावप्रवण होता, गहराता क्षण था,
विह्वल सा, वो आकुल मन था!

कोई, क्या जाने, पीछे छूटा क्या!
कितना, टूटा क्या!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 August 2021

मन पंछी

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

झूले कैसे, गगन का ये झूला,
भरे, पेंग कैसे, 
पड़ा, तन्हा अकेला,
तन्हाईयाँ, वो आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

बरबस, खींच लाए, वो साए,
देखे, भरमाए,
करे, कोरी कल्पना,
भरे रंग, वो मन शाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

भटके ना, कहीं डाली-डाली,
भूले ना, राह,
चाहतों का, गाँव,
वियावानों में, आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

रंग सारे, यूँ बिखरे गगन पर,
रंगी, ये नजारे,
भाए ना, रंग कोई,
ना ही, दूजा फरियाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 28 August 2021

दो अलग बातें

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

चुप से, वो कहकहे, सारे अनकहे,
गूंजता वो आंगन, बहका सा ये सावन,
लरजते दो लब, सहमे वो दो पल,
उन पलों की, ये सौगातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

गुजर से गए जब, उभर आए तब,
नजरों से दूर, उभर आए नजरों में पर,
ख्यालों में तय, हो चले ये फासले,
हैरां करे, वो सारी यादें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

करे कैद, टिम-टिमाते वो सितारे,
टँके फलक पर, उन्हें अब कैसे उतारें,
यूँ ही देखते, बस रह से गए वहीं,
तन्हा, गुजरती रही रातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

छूकर गईं, फिर, उनकी ही सदा,
भूलें कैसे? ओ जाते पल, तू ही बता,
छू लें कैसे! बहती सी वो है हवा,
टूटी, यहाँ कितनी शाखें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 14 August 2021

गुनाह

ऐ जिन्दगी! तू कोई गुनाह तो नहीं,
पर, लगे क्यूँ, किए जा रहा मैं,
गुनाह कोई,
और गुनाह कितने, 
करवाएगी, ऐ जिन्दगी!

कौन सी ख्वाहिश के, पर दूँ कतर,
कैसे फेर लूँ, किसी की, उम्मीदों से नजर,
कर्ज एहसानों के, लिए यूँ उम्र भर,
तेरी ही गलियों से, रहा हूँ गुजर,
बाकि रह गई, राह कितनी, जिन्दगीं!

और गुनाह कितने, 
करवाएगी ऐ जिन्दगी!

शक भरी निगाहों से, तू देखती है,
दलदल में, गुनाहों के, तू ही धकेलती है,
सच भी कहूँ, तू झूठ ही तोलती है,
उस शून्य में, झांकती है नजर,
खाली है आकाश कितनी, जिन्दगीं!

और गुनाह कितने, 
करवाएगी ऐ जिन्दगी!

रिश्ते बिक गए, तेरी ही बाजार में,
फलक संग, रस्ते बँट गए इस संसार में,
बाकि रह गया क्या, अधिकार में,
टीस बन कर, आते हैं उभर,
गुनाहों के विस्तार कितने, जिन्दगी!

ऐ जिन्दगी! तू कोई गुनाह तो नहीं,
पर, लगे क्यूँ, किए जा रहा मैं,
गुनाह कोई,
और गुनाह कितने, 
करवाएगी, ऐ जिन्दगी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 9 August 2021

बहता किनारा

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

पर, गुजारे हैं, पल, सारे यहीं,
रख चले, बुनकर, सपनों के सारे, धागे यहीं,
पर, देखती कहाँ, पलट कर?
भागते, वो धारे,
बहा ले जाती, इक उम्र सारा!

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

पलटकर, लौट आती है रोज,
बरबस, भर एक आलिंगन, करती है बेवश,
पिघलता, वो रुपहला पहर,
डूबते, वो सहारे,
जैसे, कर जाते हैं.. बेसहारा!

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)