कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!
ना फूल खिले,
ना खिलने के आसार!
ठूंठ वृक्ष, ठूंठ रहे सब डाली,
पात -पात सब सूख रहे,
सूख रही हरियाली,
ना बूंद गिरे,
ना ही, बारिश के आसार!
कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!
ना रात ढ़ले,
ना किरणों के आसार!
गहन अंधियारे, डूबे वो तारे,
उम्मीदों के आसार कहां,
उम्मीदों से ही हारे,
ना चैन मिले,
ना ही, नींदिया के आसार!
कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!
ना मीत मिले,
ना मनसुख के आसार!
रूखा-रूखा, हर शै रूठा सा,
मधुकण के आसार कहां,
मधुबन से ही हारे,
ना रास मिले,
ना ही, रसबूंदो के आसार!
कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)