Sunday, 14 January 2024

कुहासे

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द हुई हवा,
हर ओर, जम रही ये दिशा,
चल रही, सर्द लहर,
जर्द ये कुहासे!

सफर, अब राहतों का,
तू थम जरा,
पल भर को, तू जम जरा,
ले आया, नव-विहान,
जर्द ये कुहासे!

जम चुका, ये आंगना,
ज्यूं भर रहा,
नव-संकल्प, नव-कल्पना,
रुख ही, वे बदल गईं,
जर्द से कुहासे!

लक्ष्य है, जरा धूमिल,
धूंध है भरा,
बस खुद पर, रख यकीन,
कुछ असर दिखाएगी,
जर्द ये कुहासे!

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द अब हवा,
सर्द हो चली, गर्म वो दिशा,
नव प्रवाह, भर गई, 
जर्द ये कुहासे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 13 January 2024

मरहम

यूं तो, यूं न थे हम!
गूंजती थी, हर पल कोई न कोई सरगम,
महक उठती थी पवन!

बह चला, वो दरिया,
करवटें लेती रही, अंजान सी ये जिंदगी,
और, बंदगी मेरी!
रह गई, कुछ अनसुनी सी..
यूं तो...

अब न, शीशे में मैं,
और ही शख्स कोई, अब परछाईयों में, 
महफिलें, सज रही, हर तरफ,
पर, गुमशुदा मैं!
यूं तो...

ईशारे, अब कहां!
गगन से, अब न पुकारते वो कहकशां,
बिखरी, भीगी सी वे बदलियां,
इन्तजार में, मैं!
यूं तो...

गम, एक मरहम,
इस एकाकी राह, अब वो ही, हमदम,
चुप हैं कितने, वे साजो-तराने,
खामोश सा, मैं!
यूं तो...

यूं तो सर झुकाए,  
सह गए, सजदों में वक्त के ये सितम,
और, बंदगी मेरी!
रह गई, कुछ अनसुनी सी..
यूं तो...

यूं तो, यूं न थे हम!
गूंजती थी, हर पल कोई न कोई सरगम,
महक उठती थी पवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 6 January 2024

नजदीकियां

हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!

पहचाने से हैं, रस्ते उन गलियों के,
रिश्ते उन, रस्तों से,
करीबी हैं कितने ...
खबर है, जबकि मुझको,
फिर न पुकारेंगी,
वे राहें मुझे,
अपरिमित हो चली वो दूरियां,
अब कहां नजदीकियां?
उन गलियों से!

हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!

बसी है, इक खुश्बू अब तक इधर,
धड़कनों की, जुंबिश,
सांसों की तपिश...
उन एहसासों की, दबिश,
उन जज्बातों की,
इक खलिश, 
वे अपरिचित से लगे ही कब,
जाने, कैसा ये परिचय?
उन गलियों से!

हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 23 December 2023

दरबदर

वही रास्ते, वो ही शहर,
वही दिन, वही रात, वो ही दोपहर,
न है, तो बस वो रहगुजर!

वो शोर, वो कोलाहल,
गुजरते उन कारवों का, हलाहल,
पल, वो सारे चंचल,
चल पड़े किधर!

विदा हो चले वो साए,
वो पल, वो दूर तलक जाती राहें,
वो विपरीत दिशाएं,
हो चले दरबदर!

यूं सूना, अब वो गगन,
ज्यूं, है कहीं काया कहीं धड़कन,
विरह का ये आंगन,
जगाए रात भर!

वही रास्ते, वो ही शहर,
वही दिन, वही रात, वो ही दोपहर,
न है, तो बस वो रहगुजर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 18 December 2023

बिटिया के नाम

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

नव-रिश्तों के, इक ताने-बाने में,
बांध चुकी, जन्मों का तुम गठबंधन,
घिरकर, मन के फेरों में,
कर चुकी, नव जीवन का आलिंगन,
बांधे, पांवों में पायल,
वो खुशियों के पल, कम न होंगे..

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

खेली तुम जिसमें, सूनी वो गोद,
सूना ये आंगन, तेरी राह निहारे रोज,
लड़कपन की, तेरी यादें, 
मीठी वो तेरी बातें, कैसे लाऊं खोज,
खनक तेरी बातों के,
सूने इस आंगन में, कम न होंगे...

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

अब उस घर से बंधे, भाग्य तेरे,
मर्यादा उस कुल की, अब हाथ तेरे,
नश्वर सी, इक ही पूंजी,
संस्कारों की, पग-पग होंगे संग तेरे,
विलुप्त होते, पल में,
जीवन के कल में, हम न होंगे....

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

पापा की, नन्हीं सी बिटिया तुम,
इस बगिया की, प्यारी चिड़िया तुम,
कंपित हो, इन प्राणों में,
आलोकित हो, इन दो नैनों में तुम,
सांसों मेें, हो आबद्ध,
एहसासों मे, पास सदा तुम होगे...

ओ बिटिया, हम दूर तो होंगे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 14 November 2023

मध्य कहीं


मध्य कहीं, हर बातों में ......

ये किसके चर्चे, कर उठता है मन,
ले कर इक, अल्हरपन!
महसूस कराता, बिन मौसम इक सावन,
मध्य कहीं....
ठहराव लिए, जज्बातों में!
 
अब तो, बह आती इक खुश्बू सी,
छा उठता, इक जादू सा,
नज़रें टिक जाती, उस विस्तृत नभ पर,
मध्य कहीं....
इक इंतजार लिए, रातों में!

खोए वो पल, सपनों सी रातों में,
आए ही कब, हाथों में,
अल्हरपन में, बस उन्हीं पलों के चर्चे,
मध्य कहीं....
करता ये मन, हर बातों में!

शायद, ढूंढे, मन अपना मनचाहा,
अंजाना सा, इक साया,
डूबते-उपलाते, निरर्थक बहते पल के,
मध्य कहीं....
अर्थ कोई, बहकी रातों में!

मध्य कहीं, हर बातों में ......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 5 November 2023

नन्हीं दीप


हो चला एहसास, बंध चली उम्मीद,
मद्धिम सी जल रही, यूं कहीं,
नन्हीं सी, इक दीप!

यूं तो कम न थे, झौंके,
उमरते धूल, और चुभते शूल राह के,
दबी सी इक घुटन,
खौफ, उन अंधेरों के!
पर कहीं, जलकर हौसला देती रही,
नन्हीं सी, इक दीप!

खोए, उजालों में कहीं,
हर नजर, ढूंढ़ती है अपनी ही जमीं,
टूटे वो सारे सपने,
बिखरे, नैनों की नमीं!
पर, छलके प्यालों संग, जलती रही,
नन्हीं सी, इक दीप!

विलगते, सांझ के साए,
बिछड़ते, मद्धम रात के वो सरमाए,
टूटे तारों सा गगन,
कौन सिमेट कर लाए!
पर, जलती रही, मन की गलियों में,
नन्हीं सी, इक दीप!

हो चला एहसास, बंध चली उम्मीद,
मद्धिम सी जल रही, यूं कहीं,
नन्हीं सी, इक दीप!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 21 October 2023

छूटते लम्हे

प्यार यूं तो, बहुत है इस ज़िन्दगी से,
पर ये लम्हे, हैं कम कितने!

लरी खुशियों की, यूं ही, हम बुनते,
कली ये सारे, यूं ही हम चुनते,
क्या करें!
यूं तो, गम भी हैं कितने!

प्यार यूं तो.....

जल उठे, यूं दिये बंद एहसासों के,
धुवें कितने, यूं गर्म सांसों के,
क्या करें!
नमीं आंखों में, हैं कितने!

प्यार यूं तो.....

यूं कहें किससे, ये किस्से अनकहे,
यूं जलजले से उठते ही रहे,
क्या करें!
गुम से साहिल हैं कितने!

प्यार यूं तो, बहुत है इस ज़िन्दगी से,
पर ये लम्हे, हैं कम कितने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 4 October 2023

मद्धिम रात

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

स्वप्न सरीखी, अनुभूतियां,
कंपित होते, कितने ही पल,
उलझे हैं, इन आंखों पर,
ज्यूं, जागी है रात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

सुलझे कब, ऐसे उलझन,
विस्मित, दो तीर, खड़ा मन,
अपना लूं, सुबह के पल,
या, मद्धिम सी रात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

भ्रमित करे, ये मृगतृष्णा,
खींचे स्वप्न भरे कंपित पल,
सहलाए, भूले मन को,
हौले-हौले, ये रात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

सुबह के, ये भीगे पात,
अलसाई, उंघती हर छटा,
वो नन्हीं सी, इक घटा,
कहती अधूरी बात!

हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 29 August 2023

फरमाईश

दरिया, इक ठहरा सा मैं,
चंचल हो, 
उतने ही तुम!

है इक, चुप सा पसरा,
झंकृत हो उठता, वो सारा पल गुजरा,
सन्नाटों से, अब कैसी फरमाईश,
शेष कहां, कोई गुंजाइश!

समय, कोई गुजरा सा मैं,
विह्वल हो,
उतने ही तुम!

उठती, अन्तर्नाद कभी,
मुखरित हो उठते, गूंगे फरियाद सभी,
कर उठते, वे भी इक फरमाईश,
क्षण से, रण की गुंजाइश!

बादल, इक गुजरा सा मैं,
अरमां कई,
भीगे-भीगे तुम!

गुजरुंगा, इक चुप सा,
हठात्, उभरता, ज्युं अंधेरा घुप सा,
रहने दो, अधूरी इक फरमाईश,
उभरने दो, इक गुंजाइश!

इक अंत हूं, गुजरा सा मैं,
पंथ प्रखर,
उतने ही तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)