जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Tuesday, 5 January 2016
Monday, 4 January 2016
भाग्य और किस्मत
भाग्य का दामन,
नही छोड़ा कभी जीवन ने,
कर्म का भाग्य से शायद,
है जन्मों का नाता,
किस्मत मे जो है तेरे,
वही सामने आता।
कर्म का भाग्य से शायद,
है जन्मों का नाता,
किस्मत मे जो है तेरे,
वही सामने आता।
वश नहीं विधि के लिखे पर,
दूर जिससे तू जितना भागता,
उतना ही वो समीप आ जाता,
लिखा तेरा तेरे सामने आता,
भाग्य के रेखाओं पर,
वश कहाँ चल पाता।
दूर जिससे तू जितना भागता,
उतना ही वो समीप आ जाता,
लिखा तेरा तेरे सामने आता,
भाग्य के रेखाओं पर,
वश कहाँ चल पाता।
कर्म किए जा तू पथपर,
आगे की व्यर्थ चिन्ता मतकर,
जो होगा लिखा विधि में,
आएगा वो खुद चलकर,
भाग्य के लिखे पर,
वश कहाँ चल पाता।
आगे की व्यर्थ चिन्ता मतकर,
जो होगा लिखा विधि में,
आएगा वो खुद चलकर,
भाग्य के लिखे पर,
वश कहाँ चल पाता।
अच्छे-बुरे की कर पहचान,
पथ अपनी तू चलता जा,
भाग्य को मत कौश अपने,
किस्मत की अनमिट रेखा,
तू बदल नही सकता,
है तेरे किस्मत मे जो,
वही सामने आता।
पथ अपनी तू चलता जा,
भाग्य को मत कौश अपने,
किस्मत की अनमिट रेखा,
तू बदल नही सकता,
है तेरे किस्मत मे जो,
वही सामने आता।
दिल ढूंढता फिर
वादियो की गहराई मे खामोशियों की हैं सदाएँ,
दिल ढूंढता फिर वही कहकशों के शहर,
दे जाओ तुम साथ वादियों मे कहीं दूर तक।
लम्हात जिनमे हैं तुझ संग बेफिक्री की रवानियां,
बसते हैं जिनमे असंख्य फूल तेरी यादों के
दिल के प्रस्तर पर उन्ही लम्हों को बिखेर दो,
दे जाओ तुम साथ जज्बातों में कहीं दूर तक।
बंधन मुक्त
हृदय अन्तस् तेरा छू जाऊँ,
उत्कंठाओ को नव स्वर दे दूँ,
मर्म जीवन का समझ पाऊँ।
कल्पनाओं के मुक्त पंख दे दो,
उन्मुक्त पंछी बन ऊड़ जाऊँ,
ऊड़ बैठूं कभी हिमगिरि पर,
कभी वृक्ष विशाल चढ़ जाऊँ।
मुझको विशाल व्योम दे दो,
आभाओं के दीप बन जल जाऊँ,
रचना नवश्रृष्टि की कर पाऊँ।
मुक्त भव-बाधा से मैं हो जाऊँ।
मैं बंधन मुक्त हो जाऊँ।
वो हो तुम..... !
वो हो तुम..... !
आभामंडल मुखरित,
नयनों मे रतरजिनी,
होठों पर रज पंखुरी,
प्रकाश पुंज आँखों मे,
कंठ में गीत मधु कामिनी,
स्वर में वीणा का कंपन,
तेज सरस्वती सम्।
वो हो तुम..... !
आशाओं के स्वर,
जीवन ज्योत पुंज,
सप्तरागिणी प्रभात की,
तुम नवगति नवलय ताल,
जड़ जीवन के गीत तुम,
जड़ चेतन का प्राण,
स्पर्श मधुमास सम्।
वो हो तुम..... !
शब्दों को होठों का कंपन दे दो
तुम इनको जीवन अंबर दे दो,
मुखरित तभी ये हो पाएंगे,
कंठ सभी के बस जाएंगे।
मेरे शब्दों को अपनी होठों का कंपन दे दो।
कहते है शब्दों से भाषा बनती,
पर मेरे शब्दों के परिश्रम व्यर्थ क्युँ जाते,
ये शब्द भाषा मे क्युँ नही ठल पाते,
तेरे स्वर मे है वीणापाणि बसती,
तुम इनको मुखरित स्वर दे दो,
मेरे शब्दों को अपनी होठों का आलिंगन दे दो।
Sunday, 3 January 2016
है कौन सा वो प्रथम स्वर?
है कौन सा वो प्रथम स्वर,
आरंभ जहां से होता जीवन संगीत,
फूटते जहाँ से प्राणो के निर्झर,
क्या वो "सा" है? शायद नहीं!
संगीत जीवन का इससे भी है सुन्दर,
सोचता मन अक्सर, है कौन सा वो स्वर?
"सा" तो है महज कल्पना मानस की,
इसने कोशिश की है मात्र,
स्वर को इक देने की सीमा,
जीवन तो है कल-कल बहता निर्झर,
सात स्वरों की सीमाओं मे ये बंधा है कब,
सोचता मन अक्सर, है कौन सा वो स्वर?
प्रथम स्वर उस माता का है शायद,
गर्भ मे सुना जिसको शिशु नवजात ने,
पहला स्वर या फिर ब्रह्मांड का है,
प्रकृति ने सुन जिसको छेड़ी रागिणी,
कलकल सरिताओं ने पर्वत के भेदे हृदय,
सोचता मन अक्सर, है कौन सा वो स्वर?
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