Saturday, 23 January 2016

क्षणभंगुर जीवन की नाव

यह नाव, जीवन की क्षणभंगुर,
यात्री, जाना पर तुझको है दूर,
ठहरेगा तू, तट जीवन के, थोड़ी देर,
दामन छोड़ना, मत कभी धीरज का,
मंजिल, अपने नगर की, तू पाएगा जरूर।

क्षणिक नगरी में, तुझे मिलेगा,
अपने हृदय की, स्वप्निल छाया,
जड़ शुष्क, कभी खुद को पाएगा,
सीमित प्राचीरों में, कभी रक्षित होगा,
अंतिम मंजिल, अपने नगर की, फिर पाएगा।

आज यौवन, जीवन का तुझमें,
कुछ सुखदायक, सरस स्वप्न इसमें,
तू, अमर सुख भी जीवन का पाएगा,
भर ले तू गागर, सुख-दुख के क्षण से,
कुछ देर ठहर कर, जग से तू, वापस जाएगा।

तुम गीत मेरी

तुम प्रीत, तुम संगीत मेरी, जीवन छंद सी कलरव करती,
अधरों से लिपटी तुम गीत मेरी।

स्वर विहग सम चहकती, जीवन पल गुँजित तुझसे ही,
कुसुमित मन उपवन तुम मेरी।

यौवन का मधुरस तुम, मधुर स्वर की रागिनी तुम मेरी,
कुंठित पल की स्वर संगीत तुम मेरी।

जीवन काया मिट्टी तुम बिन, निःस्वर विरहाग्नि जीवन,
जीवन स्वर मे घुली प्राण तुम मेरी।

मिट्टी का कर्ज

ओ प्राणदायक मिट्टी तेरा कर्ज उतारूँ कैसे?

हार-माँस काया मिट्टी का बना,
तेरे कण की बूँद से गया कढ़ा,
अंकपाश तेरे जग पला- बढ़ा,
भूख प्यास मे तुझको ही काटा।

ओ जीवनरक्षक मिट्टी तेरा कर्ज उतारूँ कैसे?

स्वर्ण हरितिमा पत्तों को देता,
अंश जीवन का तुझमे पलता,
मूक प्राणमूल जीवन मे भरता,
मृत्यु समय अपने उर भर लेता।

ओ कष्टनिवारक मिट्टी तेरा कर्ज उतारूँ कैसे?

बादल की वेदना

गर्जनों की भीषण हुंकार,
है प्रदर्शन बादलों की वेदना का,
परस्पर उलझते बादलों की मौन वेदना,
कौन समझ पाया है इस जग में।

घनघोर बादलों की आँसूवृष्टि,
धो डालती धरा का दामन हर साल,
आँसू है शायद ये किसी ग्लानि के!
कड़क बिजली ज्यूँ चीख पीड़ा की।

तपती धरा की जल राशि लेकर,
 स्वनिर्माण स्वयं की करता,
मौन धरा की तपिस देख फिर आँसू बरसाता,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

सागर की वेदना

तेज लहरों की भीषण हाहाकार, 
है वेदना का प्रकटीकरण सागर का,
मौन वेदना की भाषा का हार,
कौन समझ पाया है इस जग में।

लहरें चूमती सागर तट को बार बार,
पोछ जाती इनके दामन हर बार,
करजोड़ विनती कर जैसे पाँव पकड़ती,
पश्चाताप किस भूल का करती?

शायद निचोड़ा है इसने धड़ा को स्वार्थवश,
सर्वस्व धरा का लेकर किया स्वनिर्माण,
पश्चाताप उसी भूल का करती?
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

मौन धरा की वेदना

चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरों की तेज हाहाकार, 
है वेदना का प्रकटीकरण सागर का,
मौन वेदना की भाषा का हार,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

गर्जनों की भीषण हुंकार,
है प्रदर्शन बादलों की वेदना का,
परस्पर उलझते बादलों की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरें चूमती सागर तट को बार बार,
पोछ जाती इनके दामन हर बार,
पश्चाताप किसी भूल का करती?
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

घनघोर बादलों की आँसूवृष्टि,
धो डालती धरा का दामन हर साल,
आँसू है शायद ये किसी ग्लानि के!
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

विशाल हृदय धरा का,
खुद को निचोर सर्वस्व सागर को देता,
तपाकर खुद को रचना बादलों की करता,
चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

Friday, 22 January 2016

सांध्य झंझावात

झंझावात क्या डरा पाएंगे जीवन को?

सांध्य गगन में उड़ते नीड़ों को खग,
रवानियाँ करते झूमते हवाओं मे तब,
भूले रस्ता झंझा के झोंकों में पड़कर,
हठात् सोचते क्या  होगा आगे अब।

झंझावात क्या ले पाएंगे जीवन से?

पीड़ा पंखों की उठती चुभती दंश सी,
भेंट चढ गए मित्र-गण झंझावात की,
चिन्ता सताती नीर  व नन्हे चूजों की,
नन्ही जान अटक सी जाती खग की।

झंझावात कितना सताएंगे जीवन को?

सांध्य निष्ठुर कैसा जीवन का आँचल,
उपर गरजता प्रलय के काले बादल,
फुफकारता नाग सा सृष्टि का अंचल,
जीवन फिर भी रुकता नही प्रतिपल।

झंझावात क्या रोक पाएंगे जीवन को?